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World Book Fair, 2013 Mein Antika Prakashan

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काम निकालने के राडियाई नुस्‍खे : सेवंती नैनन


काम निकालने के राडियाई नुस्‍खे
सेवंती नैनन

(प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ में मीडिया पर छपनेवाला सेवंती नैनन का पाक्षिक स्तंभ मीडिया मैटर्स अपनी साफगोई और गहरी पकड़ के कारण बहुचर्चित है। पर बीते 5 दिसंबर को ‘द हिंदू’ ने इस स्तंभ को बिना कारण बतलाए नहीं छापा। यह लेख नैनन के ब्लॉग द हूट से साभार हिंदी में हू-ब-हू ‘बया’ के पाठकों के सामने रखा जा रहा है।)

राडिया टेप पत्रकारिता और जन संपर्क के विद्यार्थियों के लिए पाठ्य-पुस्तक जैसा उपयोगी महत्त्व रखते हैं, आजकल इन दोनों का प्रशिक्षण एक ही संस्थान में होता है। जिस तरीके से राडिया ने काम किया वह दोनों ही किस्म के व्यवसायों में लगे लोगों के लिए अलग-अलग सबक पेश करते हैं।
आइए पहले देखते हैं कि नए पत्रकार इन टेप की बातचीतों से क्या सीख सकते हैं। आपसी प्रतिद्वंद्विता में उलझे एक जोड़ी उद्योगपति बंधु ही लोकतंत्र के हर महत्त्वपूर्ण स्तंभ को, चाहे वह सरकार हो, संसद हो,  न्यायपालिका हो या फिर प्रेस, पथभ्रष्ट कर सकते हैं। ये टेप इस बात की निर्देशिका हैं कि भारत को कौन चलाता है और उन लोगों की योजनाओं में पत्रकार कहाँ फिट होते हैं। कभी-कभार स्वयंभू तरीके से ही। जैसा प्रभु चावला—जो कि पिछले कुछ दशकों से भारत के सर्वाधिक असरदार पत्रकारों में से हैं, राडिया से कहते हैं, ‘‘देखो इन दिस कंट्री दोनों साइड को फिक्स करने की कैपेसिटी (क्षमता) है।’’
फिर वह आगे राडिया को बताते हैं कि कैसे वह मुकेश अंबानी को यह समझाने की कोशिशों में लगे हैं, लेकिन वह आदमी न तो उनके संदेशों का उत्तर देता है और न ही उनके फोन उठाता है। हम नहीं जानते कि अंतत: अंबानी को यह बात समझ में आई या नहीं कि कैसे प्रभु चावला उनकी मदद कर सकते हैं। ध्यान रखें कि जो बातचीत जारी की गई है वह बेहद चुनिंदा है।
दूसरा सबक : जो लोग वास्तव में देश को चला रहे हैं उन्हें पत्रकारों की ज़रूरत है, पर अपनी ही शर्तों पर, और वे उसकी कीमत जानते हैं।
नीरा राडिया और रतन टाटा की बातचीत देखें:
टाटा : इस सब का खुलासा क्यों नहीं हुआ?
राडिया : रतन वो लोग मीडिया को खरीद ले रहे हैं। वे मीडिया को खरीदने के लिए अपनी पैसे की ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं। हर विज्ञापन के लिए जो वे ...को देते हैं, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मेरी मीडिया से क्या बात हुई, खासकर ‘टाइम्स समूह’ और ‘दैनिक भास्‍कर’ से। वही अग्रवाल लोग जिनसे तुम मिले थे।
टाटा : हाँ...
राडिया : वे कहते हैं, नीरा, हम जब भी उनके खिलाफ कोई नकारात्मक खबर लगाते हैं, वे लोग विज्ञापन देना बंद कर देते हैं। तो मैंने कहा कि ठीक है, फिर दूसरे भी विज्ञापन बंद कर सकते हैं...वे मीडिया पर खर्च अपने एक-एक डॉलर का हिसाब इस बात को सुरक्षित करने के लिए करते हैं कि उनके खिलाफ कोई नकारात्मक प्रचार ना हो। मीडिया बेहद लालची है...।
पहले पैरा में ‘वे’ अनिल अंबानी के लिए कहा गया है जिनका नाम इस टेपित बातचीत में आया है। उनके लिए ‘वह’ की जगह ‘वे’ क्यों इस्तेमाल है? क्योंकि उसके पास अपनी नीरा राडिया है।
तीसरा सबक : अगर आप ऊँचे स्तर पर पत्रकारिता कर रहे हों तो आपका साबका दोनों ओर के पटानेवालों से पड़ता है। यदि आप जानना चाहते हों कि भारत में आखिर चल क्या रहा है तो आपको दोनों से निपटना सीखना पड़ेगा। इस पेशे के पुराने खिलाड़ी इस बात को जानते हैं। अंग्रेज़ी मीडिया में हर वह संपादक जो ज़रा भी महत्त्व रखता है चाहे सफेद हो या गुलाबी दैनिक अखबार का या इलैक्ट्रानिक मीडिया का, सबका नाम बातचीत में मौजूद है। या तो उससे बात की गई है या फिर उसका संदर्भ इस रूप में है कि नीरा उससे मिलने वाली हैं। कभी-कभार मुकेश अंबानी के किसी बड़े अधिकारी के साथ मुलाकात के संदर्भ में भी उन नामों का जिक्र हुआ है। हर संपादक इस बात को भी समझता है कि मसलों को जानने के लिए आपको उनसे मिलना ही होगा।
नीरा के साथ मुकेश अंबानी के दाएं हाथ मनोज मोदी की बातचीत के अंश देखें:
बरखा मनोज से : ‘‘आप उन्हें मेरी शुभ·ामनाएँ दें, और आप ·भी दिल्ली आएं तो $फुर्सत में, हालाँ·ि आप·े पास फुर्सत जैसी कोई चीज नहीं, फिर भी कभी आए तो ...।’’
मनोज बरखा से : ‘‘नहीं, नहीं, नहीं, आप जानती हैं मैं दिल्ली ·भी नहीं आता, ले·िन ·ल रात मैं सिर्फ इसी (?) काम के लिए आया, सिर्फ इसी काम से। ’’
बरखा मनोज से : ‘‘यह काफी मददगार रहा मनोज वास्तव में। लेकिन क्या मैं आपके साथ...’’ (फोन कट जाता है)
सिर्फ संपादक हीं नहीं, रिपोर्टरों के लिए भी यह सबक है। यदि आप टेप को ध्यान से सुनें तो आप जानेंगे कि मनाने और दबाव डालने वालों से कैसे निपटा जा सकता है। कुछ रिपोर्टर जानकारियों को इधर से उधर करते हैं। कुछ साथ लेकर चलते हैं, कुछ सिर्फ सुनते और पड़ताल करते हैं, कुछ अपने बाहुबली क्लाइंटों की मदद करना चाहते हैं या फिर कुछ ऐसे भी हैं जो राडिया को यह बताने को उत्सुक हैं कि वे मदद क्यों नहीं कर पाएँगे। कुछ इस बात की सलाह देते हैं कि उन्हीं के प्रकाश्य में कैसे रास्ता निकाला जा सकता है :
एम. के. बिल्‍कुल तटस्थ सलाह है। इसको ऐसे अखबार को दो जो इसको लीड फ्लायर कैरी करे। इसको सीएनबीसी को दो। तब ये लोग काफी भड़केंगे। अगर सीएनबीसी इसे दिन में दस बार लीड के रूप में लेता है, तो अफरा-तफरी मच जाएगी। अगर मैं संपादक होता तो रोहिणी की स्टोरी सीधे पहले पेज पर ही लगती आधे पन्ने पर सबसे ऊपर, एकदम लीड की तरह। क्या तुम्हें लगता है कि एमडी को चिट्ठी लिखी जा सकती है? सिर्फ यह कहते हुए कि हम आपको ईटी नाउ (‘इकोनोमिक टाइम्स’ का चैनल)के शुरू होने पर शुभकामना देना चाहते हैं, और इसके बाद तुम इस मुद्दे को इस तरह उठा सकती हो कि देखिए यह मसला राष्ट्रीय रुचि का है और हमें उम्मीद है कि आप इसे ले सकते हैं, आप जानती हैं, जैसा कि वाईएसआर रेड्डी ने लिखा है। ऐसा करके तुम लगाओ ना।
(एम.के.. यानी एम.के. वेणु जो फिलहाल ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ के संपादक हैं और तब ‘इकनॉमिक टाइम्स’ में हुआ करते थे)
जो लोग जनसंपर्क में भविष्य बनाना चाहते हैं, ये टेप उनके लिए पूरे किसी मैनुएल की तरह है जो बतलाता है कि क्या करें और क्या ना करें।
पहला बुनियादी सबक : पत्रकारों को खबर चाहिए और उनके मालिकों को विज्ञापन। दोनों का दोहन करना सीखें।
दूसरा सबक : पत्रकार खुद को यह भरोसा दिलवाना चाहते हैं कि वे राष्ट्रीय हितों के संरक्षक हैं। इसी लाइन को पकड़ें।
‘‘प्रभु चावला : देखो न, जब ये भाई उलझे हों तो पूरा देश लपेटे में आ जाता है।
राडिया : हाँ, यह शायद ठीक नहीं है, ना। देश के लिए तो यह ठीक नहीं।’’
और जगहों पर भी उसने इतने ही प्यार से यह बात कही है जैसे कि उसे वास्तव में देश की बड़ी चिंता हो।
‘‘सिर्फ इसलिए कि दोनों भाइयों में विवाद है, क्या इसकी  कीमत पूरा देश चुकाएगा?’’
तीसरा सबक : जानें कि प्रेस में कौन आपका दोस्त है।
‘‘हमें उन्हें सवाल देने हैं। वीर (संघवी)के साथ हम मैनेज कर सकते हैं, हम जो सवाल पूछना चाहेंगे पूछ लेंगे।’’
और इसकी समझ भी हो कि अपने क्लाइंट को किनसे दूर रखना है:
एम.के. वेणु से, जब वह इटी नाउ में थे:
‘‘वाकई वेणु। तुम अरनब को ईटी नाउ में नहीं रखना चाहते। वह बरबाद कर देगा। मैंने राहुल, रवि धारीवाल (टाइम्स समूह के सीईओ) से यह कहा भी था। कोई भी सीईओ अरनब के शो पर नहीं जाना चाहता। वीर टाइ·कून शुरू कर रहा है। मेरे सारे क्लाइंट वीर के साथ मज़े से रहते हैं।
वेणु : क्या करन थापर के साथ तुम कंफर्ट महसूस करती हो?’’
राडिया : बिल्‍कुल नहीं। वह अरनब जैसा ही है।
दबाव डालना सीखें:
‘‘तो ठीक है। तुम राहुल (जोशी) को बता दो कि जब टाटा पावर, टाटा केमिकल्स और नागार्जुन फर्टिलाइजर्स कोर्ट में मुकदमा दायर करेंगे और कुछ लिखने को होगा तो वे ईटी को नहीं देंगे। अगर वे खबर का सबसे ज़रूरी हिस्सा ही नहीं छापेंगे तो। तुम एक बार राहुल से बात कर लो—बता दो कि यह खबर तुम्हें नहीं देंगे अगर वह इस नजरिए से उसे नहीं लेना चाहते तो।’’
या
‘‘यदि तुम उसे प्रभाकर सिन्हा को दो तो क्या वह पहले पेज पर लेगा। मैं चाहता हूँ कि वह प्रमुखता से छपे। मैं दे सकता हूँ, सिर्फ तब जब मुझे यह आश्वासन मिल जाएगा।’’
आपको हर किस्म के पत्रकारों से बात करनी होगी, लेकिन छोटे पत्रकारों से गलबहियाँ करने की ज़रूरत नहीं है।
राडिया अपनी टीम में किसी से कहती है :
‘‘नयनतारा वगैरा मुझे कॉल कर रहे हैं। अब हर स्टोरी के लिए उन्हें मुझे फोन करने की ज़रूरत नहीं। उन्हें तुमको कॉल करना चाहिए।’’
जब अंग्रेज़ी मीडिया से मदद न मिल रही हो, तब हिंदी मीडिया में हाथ डालें।
‘‘तुम्हारे बीएस ने पूरा उनका पर्सपेक्टिव (नजरिया) कैरी किया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ भी ...बीएस का? हमारा पर्सपेक्टिव नहीं है, मुझे सुनना पड़ता है क्लाइंट से। ‘दैनिक जागरण’ में छपी स्टोरी की हज़ार प्रतियाँ। हर सांसद के घर पर भिजवाओ। अनुवाद करवाओ। उन्होंने बहुत ही आलोचनात्मक स्टोरी की है। स्टोरी शाम तक सबके घर में पहुँच जानी चाहिए।’’
और अंत में :  उदीयमान जन संपर्क पेशेवरों को राडिया के जानी दुश्मन टेप वाले ‘टोनी’ संभवत: एक सबक बेहतर सिखा सकते हैं: अपने लेन-देन की इतनी बातें फोन पर नहीं करनी चाहिए।
''बया'' अक्‍टूबर-दिसंबर, 2010 से साभार.....

''अंतिका''क पचीसम अंकक संपादकीय

पचीस अंकक यात्रा
अनलकान्त
मोन पड़ै अछि दिसंबर, 1998क ओ दिन जहिया दिल्लीक सीमा कात शालीमार गार्डन (गाजियाबाद)क सटले गणेशपुरीक एक टा छोट-सन किरायाक कोठली मे सपरिवार रहैत छलहुँ। ओही कोठली मे सारंग कुमार आ संजीव स्नेहीक संग हमरासभ एक टा पत्रिका निकालबाक निर्णय लेने छलहुँ। ओ दिसंबरक कोनो रवि दिन छल, मुदा संजीव स्नेही केँ ‘सांध्य महालक्ष्मी’ सँ छुट्टी नहि छल। सारंगजी ‘पब्लिक एशिया’ मे विज्ञापन-अनुवादक काज करैत कटवारिया सराय मे रहैत छलाह आ पछिला साँझ हमरा घर आयल छलाह। रविक भोर संजीव स्नेही जाबत ऑफिसक लेल विदा होइत हम आ सारंग अनेक नाम पर विचार करैत ‘अंतिका’ पर आबि क’ रुकल रही। बाकी नाम सभक लगातार मजाक-मजाक मे धज्ïजी उड़बैत आबि रहल संजीव स्नेही आ नंदिनी सेहो एहि पर एक भ’ गेल।
ओहि राति धरि, जाबत संजीव ऑफिस सँ घुरल, हम आ सारंग अंकक प्रारूप, लेखकक सूची, लेखक लोकनि केँ जायबला पत्रक प्रारूप आदि बना लेने छलहुँ। राति मे डेढ़-दू बजे धरि सब गोटे ओहि पर पुन:-पुन: चर्चा-समीक्षा-बहस करैत सब किछु तय क’ लेने छलहुँ, मुदा ‘अंतिका’ लेल दिल्लीक एक टा डाक पताक संकट छले। संगे एक टा वरिष्ठ सलाहकारक बेगरता सेहो अनुभव करै छलहुँ। कि तखने अग्रज अरुण प्रकाश जी सँ भेट करबाक विचार आयल।
अगिला भोर हम, सारंग आ संजीव—तीनू गोटे अरुण जीक घर पहुँचलहुँ। हमरासभ सब टा बात-विचार सँ हुनका अवगत करबैत अपन प्रस्ताव रखलयनि। ओ मैथिलीक स्थिति सँ अवगत छलाह आ एक टा स्तरीय पत्रिकाक बेगरता स्वयं अनुभव क’ रहल छलाह। ते ओ सहर्ष तैयार होइत संपादकीय कार्यालयक रूप मे अपन घरक पता उपयोग करबाक अनुमति सेहो देलनि आ तत्काल भाइ श्रीकांत जी केँ बजा क’ पत्रिकाक बजट बनबौलनि। पहिल अंक जनवरी-मार्च, 1999क छपाइक काज श्रीकांते जीक दौड़-भाग आ निर्देशन मे पूरा भेल छल।
एवंप्रकारें ‘अंतिका’ क पहिल अंक छपिक’ आबि गेल। ओहि अंकक संग एक टा नीक बात ईहो भेल छल जे भाइसाहेब राज मोहन जी आ सुकांत जी सेहो ओहि समय दिल्ली मे छलाह। अनेक वरेण्य रचनाकारक संगहि हिनका लोकनिक अपार सहयोग प्रवेशांकेक ओरिआओन सँ रहल। ओही बीच दिवंगत भेल बाबा यात्री पर ओहि अंक लेल सुकांत जी अपन आलेख दिल्लीए मे लिखने छलाह। भाइसाहेबक सक्रिय सहयोग सेहो ओही अंक सँ शुरू भ’ गेल छल। ओ तँ कतेको अंकक कतेको सामग्रीक संपादन, पू्रफ, संयोजन, अनुवाद आदि करैत जाहि रूपें ‘अंतिका’ केँ ठाढ़ कयलनि तकरा बिसरले नइँ जा सकैछ। तहिना एकर न्यौं मे हिंदीक वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार आ ‘समयांतर’ क संपादक पंकज बिष्टक व्यापक सहयोग अविस्मरणीय अछि। सुखद आ स्मरणीय ईहो जे नई दिल्ली मे कनाट प्लेस स्थित मोहनसिंह पैलेसक इंडियन कॉफी हाउस मे 21 फरवरी 1999 केँ ‘अंतिका’ क विमोचन राज मोहन जीक हाथें भेल छल आ एहि अवसर पर जीवकांत, भीमनाथ झा, रामदेव झा, गंगेश गुंजन, रामेश्वर प्रेम, मोहन भारद्वाज, अनिल मिश्र सन मैथिलीक वरिष्ठ लोकनिक संगे हिंदीक पंकज बिष्ट, हरिनारायण समेत अनेक लोकक उपस्थिति हमरासभक लेल उत्साहवद्र्घक छल। अरुण जी सहित समस्त ‘अंतिका’ परिवार अपन कठिन संघर्षक काल (मोने अछि जे ओहि दिन हमरा तीनूक जेब खाली छल)मे समस्त ऊर्जा आ भावनाक संग ओहि ठाम जेना उत्साह सँ एकजुट भेल रही सेहो अविस्मरणीय अछि।
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तकरा बाद सोलह टा अंक लगातार चारि वर्ष धरि अनेकानेक विघ्न-बाधा, वाद-विवाद, विरोध-सहयोगक बीच समय सँ आयल आ पत्रिका लगातार विकास-पथ पर अग्रसर रहल। एहि बीच दू-एक टा दु:खद-सन प्रसंग सेहो जुड़ल। दोसर अंक अबैत-अबैत अरुण प्रकाश जी अपन नाम वापस ल’ लेलनि आ डाक लेल दोसर पता ताक’ कहलनि। ओना रजिस्टर्ड कार्यालय एखनो अरुणे जीक घर अछि आ हुनक लगाव सेहो ‘अंतिका’ संग अछिए। जे से… तखन हम ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव सँ निवेदन क’ डाक-संपर्क लेल अक्षर प्रकाशन, दरियागंज केर पता तँ ल’ लेलहुँ, मुदा एहि शर्तक संग जे ‘एहि पता पर व्यक्तिगत-संपर्क संभव नहि’। ई फराक जे परिचित लोक जे पहिने अबै छलाह, बादो मे अबैते रहलाह। एहि लेल राजेन्द्र जीक आभारी छी।
ओहि समय धरि सारंग कुमार आ संजीव स्नेही मात्र नइँ, कनेके बाद मे जुड़ल साथी श्रीधरम आ रमण कुमार सिंह—चारू अविवाहित छलाह आ चाकरीक अलावा अधिकाधिक समय ‘अंतिका’ केँ दैत छलाह। तखन पैकेट बनाव’, डिस्पैच कर’, रचना मँगाव’, संपादन कर’ सँ ल’ क’ सदस्यता अभियान हो आकि किछु लिखब-पढ़ब—सब किछु सामूहिक आ एक टा मिशनक अंग जेना छल। मुदा कालक्रमें सभक अपन-अपन घर-परिवार, बाल-बच्ïचा आ मारते रास पारिवारिक ओलझोल बढ़ैत गेलनि। जीवन मे ई सब आवश्यक थिक, मुदा महानगरी जीवन आ बाजारक दबाव एकरा पहिने जकाँ सहज-स्वाभाविक कहाँ रह’ देलकै! एकरा नियतिवाद सँ जोडि़क’ देखयौ वा आन कोनो रूप मे, एहि नगरीक यैह व्यवहार! जे से…समयक दबाव मे सारंग आ संजीव शुरूक तीन सालक बाद ‘अंतिका’ केँ समय देब’ मे असमर्थ भ’ गेलाह, मुदा भावनात्मक स्तर पर आ एक रचनाकार-मित्रक रूप मे दुनू एखनो ‘अंतिका’ क संग छथि आ आगूओ रहताह। ‘अंतिका’ क न्यौंक हरेक पजेबा मे हिनका लोकनिक पसेनाक अंश अछि। श्रीधरम, रमण कुमार सिंह आ अविनाश अनेक व्यस्तताक कारणें ‘अंतिका’ लेल कम समय निकालबाक दु:ख भनहि रखैत होथि, मुदा ई लोकनि जे समय द’ रहल छथि से हिनका लोकनिक हिस्साक लड़ाइ आ प्रतिबद्घता सँ जुड़ल अछि। ई टीम-भावना आ सहयोग ‘अंतिका’ केँ शक्ति आ ऊर्जा दैत अछि।
एहि यात्रा मे तेसर धक्का लागल छल 2002क अंत मे हमर बीमार पड़लाक बाद। डेंगूक चपेट सँ बचि गेलाक बादो कर्ज आ ओहि सँ जुड़ल अनेक परेशानी तेना असमर्थ बना देलक जे 2003क मध्य सँ 2006क आरंभ धरि मात्र तीन टा संयुक्तांक आबि सकल। अंतत: 2006क अक्टूबरक बाद ‘हंस’ क चाकरी त्यागि ‘अंतिका’ लेल पूर्णकालिक होयबाक निर्णय कयल। मुदा संकट ई छल जे मात्र एक त्रैमासिक पत्रिकाक बल पर, सेहो मैथिलीक, बड़ आश्वस्त नइँ भ’ सकै छलहुँ। क्रूर महानगरीक व्यवहार, बाल-बच्ïचा, घर-परिवार आ बाजारक दबाव हमरो पर छल। तेँ हिंदी मे ‘बया’ (छमाही) आ संयुक्त रूपें हिंदी-मैथिली केँ समर्पित ‘अंतिका प्रकाशन’ सेहो शुरू कर’ पड़ल। आब तँ पंद्रह सँ बेसी किताबो अपने लोकनिक बीच आबि गेल अछि। वास्तव मे ‘अंतिका’ क जे पछिला अनुभव छल ताहि मे आर्थिक स्तर पर जे कोनो पैघ मदति छल से हिंदिएक रचनाकार लोकनि सँ भेटैत रहल छल। एतबे नइँ प्राय: एकाध अपवाद छोडि़ जे किछु विज्ञापन भेटल सेहो हिंदिए सँ हमर लेखकीय संबंध आ पहिचानक कारणें। पैंचो-उधारक आधार वैह छल। अनेक बेर पंकज बिष्ट, असगर वजाहत, महेश दर्पण आदि सँ पैंच ल’ क’ पत्रिकाक काज चलाओल। संपूर्ण मिथिला सँ आइ धरि विज्ञापन शून्य रहल। पूरा बिहारेक प्राय: सैह हाल। ओना पेट भरबाक लेल हमर निर्भरता सदति हिंदिए पर रहल आ ताहू मे पछिला पंद्रह बरख सँ प्रवासी होयबाक पीड़ा भोगैते सब लड़ाइ लड़लहुँ अछि। हिंदी मे लेखन आ संपादन दुनूक माध्यमें धन मात्र नइँ, जतबा स्नेह भेटल अछि से हमरा लेल पैघ संबल थिक। एकर उनटा मैथिलीक विभिन्न महंथानक कुत्सित दंद-फंदक कारणें ततेक अनावश्यक परेशानी आ असहयोग झेलैत रहल छी जे चोट सहबाक आदति नइँ रहैत तँ कहिया ने ‘अंतिका’ बन्न क’ देने रहितहुँ। मुदा एक तँ मातृभाषा प्रेम, दोसर किछु सहृदय रचनाकार आ ढेर रास एहेन पाठक लोकनि जे ‘अंतिका’ सँ मैथिली पढ़ब शुरूए कयलनि—हिनका लोकनिक अगाध प्रेम हमरा अंत काल धरि ‘अंतिका’ निकालैत रहबाक लेल पर्याप्ïत ऊर्जा आ शक्ति दैत अछि।
एम्हर पछिला डेढ़-पौने दू बरख सँ नव साज-सज्ïजा आ रंगीन आवरण मे अयलाक बाद ‘अंतिका’ जेना फेर नियमित अपने धरि पहुँचैत रहल अछि, आगूओ पहुँचैते रहत से विश्वास राखि सकै छी। आब हमरासभक टीम आर पैघ आ मजगूत भेल अछि तँ अपने लोकनिक विश्वास आ स्नेहेक संबल पर। वरिष्ठ चित्रकार आ कथाकार-उपन्यासकार अशोक भौमिकक कला-संपादक रूप मे सौजन्य-सहयोग हमरासभक लेल गौरवक बात थिक। आब तँ दुनू पत्रिका आ प्रकाशनक संयुक्त उद्यम सँ दीपक, सरिता सन-सन नव लोकक जुड़ाव सेहो बढि़ रहल अछि। ईहो संतोषेक गप्प जे जेना-तेना आब प्रकाशन आ पत्रिका केँ एक टा अप्पन स्थायी-सन (स्थायी किछु होइ छै?)  पता सेहो भ’ गेल छै।
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‘अंतिका’ क पचीस अंकक ई यात्रा मैथिली साहित्यक लेल केहन रहल आ मैथिली पत्रकारिताक इतिहास मे एकर कोनो सार्थकता सिद्घ होइ छै आकि नइँ, से विद्वान लोकनि जानथि—ई हमरासभक चिंता आ ‘बुद्घि’ सँ बाहरक बात थिक। हमरासभ केँ कोनो प्रमाण-पत्र आकि तगमा नइँ चाही किनको सँ। पाठके हमर देवता छथि आ सामान्य जनताक नजरि मे ठीक रहबे हमरसभक प्रतिबद्घताक पहिचान। जँ जन-सरोकार सँ जुड़ल उदार दृष्टि नइँ रहल तँ कथी लेल साहित्य आ कथी लेल पत्रकारिता?
पचीस अंकक एहि यात्रा मे हमरासभक ई उपलब्धि रहल जे सय सँ बेसी एहेन नियमित पाठक बनलाह जे पहिने मैथिली मे छपल कोनो पत्रिका आकि किताब नइँ पढऩे छलथि। एक दर्जन सँ बेसी रचनाकार मैथिली मे अपन लेखनक आरंभ ‘अंतिके’ सँ शुरू कयलनि। निन्दा-प्रशंसा-पूर्वाग्रह आकि संबंध-आधारित चर्चा सँ हँटि सम्यक आलोचना-समीक्षाक जे परिपाटी ‘अंतिका’ सँ शुरू भेल, तकरे फल थिक जे मैथिलियो मे लोक आब अपन आलोचना सुनबा-सहबाक साहस कर’ लागल छथि। साहित्येतर वैचारिक लेखन, अनुवाद, स्तंभ-लेखन आदि केँ जगह दैतो कथा-कविता-आलोचनाक संग नाटक केँ पर्याप्ïत जगह पहिल बेर ‘अंतिके’ मे भेटल अछि। एहिना उपन्यास आ महत्त्वपूर्ण रचनाकार पर संग्रहणीय विशेषांकक व्यवस्था आ सुरुचिपूर्ण प्रस्तुति। एकरे परिणाम थिक जे आइ एहि पत्रिकाक जे सर्वाधिक पाठक छथि से स्वत: प्रेरित पाठक छथि। बरजोरी बनायल पाठक नइँ। आजीवन सदस्य हो आकि सामान्य सदस्य—बेसी गोटे (प्राय: 95 प्रतिशत) अपरिचित छथि आ हुनका सभ सँ आइ धरि व्यक्तिगत भेंट-घाट धरि नइँ—हमरा-हुनका बीच संवादक पुल थिक एक मात्र ‘अंतिका’।
‘अंतिका’ मे एखन धरि जे छपल अछि पछिला 24अंक मे तकर विस्तृत अनुक्रमणिका अनेक अध्येता आ शोधार्थीक आग्रह पर एहि अंक मे प्रकाशित कयल जा रहल अछि। एकरा देखि अपने स्वयं ‘अंतिका’ क एखन धरिक काजक मूल्यांकन क’ सकैत छी।
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बीसम शताब्दीक महान काव्य-यात्री आ मैथिलीक शिखर वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’क यात्रा-विरामक संगे शुरू भेल ‘अंतिका’ क एहि यात्रा मे अभिन्न रूपें जुड़ल अनेक रचनाकार हमरासभ सँ बिछुडि़ गेलाह, हुनका लोकनिक कमी आइ बड़ खटकि रहल अछि। खासक’ कुलानंद मिश्र, धूमकेतु, उपेन्द्र दोषी सन ‘अंतिका’ क वरिष्ठ शुभचिंतक रचनाकार जिनका लोकनिक बहुत रास स्वप्न आ कामना एहि पत्रिका सँ जुड़ल छल।
एखन धरि सभ पीढ़ीक सर्वाधिक लेखकक अपार सहयोग जेना ‘अंतिका’ केँ भेटल अछि, तकरा प्रति आभार शब्द बड़ छोट बुझाइत अछि। अनेक रचनाकार मित्र आ अनेक व्यक्तिक स्तर पर अनचिन्हार रहितो सोच-विचारक स्तर पर परिचित साथी-सहयोगी जे लगातार ‘अंतिका’ पढ़ैत, दोसरो केँ पढ़बैत, नि:स्वार्थ विक्रय-सहयोग दैत बिना तगेदाक पूरा पाइ पठबैत रहलाह—हुनका लोकनिक सहयोगक प्रति हम कोन शब्द मे आभार व्यक्त करब? ई तँ हुनके लोकनिक पत्रिका थिक।
एत’ मोन पड़ै छथि छोट-पैघ समस्त एहेन लोक जे कोनो ने कोनो रूप मे ‘अंतिका’ केँ सहयोग देलनि अछि। चाहे तकनीकी सहयोगी होथि आकि एजेन्सीक लोक आकि विज्ञापनदाता लोकनि।
(''अंतिका''क 25म अंक सं साभार....)

अधिनायक : रघुवीर सहाय





अधिनायक 
रघुवीर सहाय


राष्‍ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्‍य विधाता है
फटा सुथन्‍ना पहने जिसके
गुन हरचना है।
मखमल टमटम बल्‍लम तुहरी
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर
जय-जय कौन कराता है
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा, उनके
तमगे कौन लगाता है।
कौन-कौन वह जन-गण-मन-अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।

MY DREAM : NALIN NATH

MY DREAM 
NALIN NATH











One day, I was thinking about my dream,
dream of having life green;
didn't care about any thing
I was surrounded with Ice-Creams.
In dream, I wanted to sing a song;
I wanted to live long
I Wanted to touch the Sky
Fly in air like a butterfly
Suddenly, I seen a ghost,
Looking like a T.V. shows host;
by looking ghost I left shocked
as my beautiful dream was broken.


गाछ संग आस : गौरीनाथ

कहानी 
गाछ संग आस
गौरीनाथ




भरतपुर गांव के करीब से जो सड़क ज़िला मुख्यालय को जाती थी उसके बस स्टॉप का नाम पकड़िया चौक था। यहां दिन भर में दो दुनी चार बसें कुछ सेकेंड्स के लिए रुकती थीं जहां आसपास के गांवों के यात्री चढ़ते-उतरते थे। कोलतार वाली यह पक्की सड़क थी पूरब-पश्चिम। उत्तर-दक्षिण को बस्तियों की तरफ जाती खरंजा सड़कें थीं, पतली-पतली सी। दक्षिण की तरफवाली उसी खरंजा के पश्चिम और मेन रोड से सटा सिमरी दीदी का घर था। उसके घर से लगा, दक्षिण-पश्चिम के कोने पर एक विशाल पाकड़ का गाछ था। इस मामूली बस स्टॉप का नाम पकड़िया चौक जिसने भी दिया होगा, निश्चय ही उस विशाल पाकड़ के कारण ही।
जैसा कि बूढ़े-बुजुर्ग बताते हैं, चौक और उसके इस नाम का इतिहास भी पैंतीस-चालीस साल से पुराना नहीं...क्योंकि उससे पहले यहां कोई पक्की सड़क नहीं थी और न ही कोई बस-गाड़ी तब इधर से गुजरती थी। लेकिन यह पाकड़ गाछ इस इलाके में तब भी सबसे उम्रदराज था। भरतपुर के नब्बे पार बुजुर्ग मल्लाह बिरजू कहते हैं, कि आजादी के पांच साल पहले पूरा इलाका कोसी के पेट में चला गया था। जब पानी उतरा तो यहां कोसों दूर तक बालू के बुर्ज के अलावा कहीं कोई बड़ा गाछ नहीं दिखता था, एक मात्र इस पाकड़ को छोड़।...और यह पाकड़ तब भी ऐसा ही विशाल और छतनार था!
कोसी के उस उपद्रव के बाद यहां जब नई-नई बस्ती बसी, सिमरी के पिता ने अपना घर इसी पाकड़ के साये में बनाया-बसाया था। सिमरी के पिता खेती-बाड़ी के अलावा पुरहिताई करते थे। उनको सिमरी बिटिया के अलावा कोई लड़का नहीं, एक और लड़की ही थी। उन्होंने बारी-बारी दोनों के हाथ पीले किए। दोनों अपनी-अपनी ससुराल चली गईं। लेकिन सिमरी साल भर भी ससुराल नहीं बस पाई। उसका पति हैजा में मर गया तो उसके पिता उसे अपने घर लिवा लाये। और तब से सिमरी इसी भरतपुर में रही।
वक्त गुजरता गया। उसके मां-बाप भी अपने दिन काटकर चले गए। कोसी बंध गई। गांव-घर आबाद हुए। विकास की आंधी आई। सड़कें-चौराहे बने, बसें चलने लगीं। सिमरी के घर के पास पकड़िया चौक आबाद हुआ। सिमरी तब पन्द्रह-सोलह वर्ष की थी जब विधवा हुई थी, मां-बाप के गुजरते-गुजरते पैंतीस-चालीस की हो गई थी और फिलवक्त पैंसठ-सत्तर के बीच। सिमरी के पास पाकड़ गाछ से लगे छोटे से फूसघर के अलावा उसी से लगी पुश्तैनी आठ-दस कट्ठा जमीन थी। उस बलुआही जमीन में फसल कम, परिश्रम ज्यादा उपजता था। उसी हाड़ तोड़ परिश्रम की बदौलत वह अपने पेट लायक अन्न और साग-सब्जी उगा लेती थी। काम-धाम के अलावा घर में कम, ज़्यादातर पाकड़ गाछ के साये में ही बैठी होती थी वह। वही उसका दालान भी था जहां गांव भर की औरतें और लड़कियां उसके साथ महफिल जमाती थीं। वहीं बैठ एक-दूसरे के सिर से जुएं हेरतीं वे सुख-दुख बतियाती थीं। बारहमासे और तरह-तरह के व्यवहार गीतों के गायन संग वह नई पीढ़ी को राग-भास सिखाती थी। तरह-तरह की अल्पनाएं और बुनाई-कढ़ाई की वह अघोषित पाठशाला थी जो वहां निरंतर चलती थी! और इन्हीं कारणों से सिमरी गांव भर की दीदी बनी हुई थी।
सिमरी ने कभी किसी धाम की यात्रा नहीं की थी। टोले की औरतों के साथ शिवरात्रि जैसे कुछ अवसरों पर गांव से दो कोस दूर शिवमंदिर में जल चढ़ाने जरूर चली जाती थी। ऐसे ही जब कभी गांव से कुछ पुण्य-आत्माएं गंगा स्नान करने जातीं, तो वह उनको बस पर चढ़ते देखती और एक बार गंगा नहाने की मनोकामना करती थी। मगर किसी बस में कभी चढ़ नहीं पाई वह।
बहुत बार चुनाव हुए, बहुत-सी सरकारें बनीं। सिमरी दीदी बहुत-बहुत चक्कर लगाकर सिर्फ एक राशन कार्ड ले पाई, जिसको दिखाकर मिट्टी तेल के अलावा कभी कुछ और नहीं लिया उसने। न पहचान पत्र वाला कार्ड मिला उसको, न बाढ़ या सूखा पर वितरित कोई राहत सामग्री। एक बार वोट देने का अवसर जरूर मिला उसको। सरपंच साहेब ने एक पर्ची उसको दिलवाते हुए बहुत अच्छी तरह समझाया था कि किस निशान पर ‘ठप्पा’ लगाना है, मगर वह ठप्पा लगाने पहुंची तो सरपंच के बताए निशान भूल गई। तब एक जगह गाछ जैसे निशान को देखकर वह बहुत खुश हुई और खुशी-खुशी उसने उसी पर ठप्पा लगा दिया था। और यही चूक, जैसा कि सिमरी दीदी कहती थी, उसके लिए ‘अपशकुन’ हो गई! दो साल भी तो नहीं बीते, उसके पाकड़ पर संकट आ गया!
हुआ यह कि उसके घर के पास से जाने वाली सड़क एन.एच. हो गई! फोर लेन चौड़ी सड़क! नेशनल हाइवे! उसका घर, उसकी सारी जमीन और पाकड़ गाछ उसी सड़क में समाहित हो गए!
चारों तरफ लोग एन.एच. की महिमा बखान रहे थे। किसी ने फुटकर बेकार पड़ी जमीन को बासगीत साबित किया, किसी ने भीट को उपजाऊ दिखाया, किसी ने डबरे की माटी सोने के भाव बेच गड्ढे खोदने का हर्जाना वसूलकर फाव में तालाब पा लिया! सब जगह ट्रक-ट्रैक्टरें घनघना रही थीं। चारों तरफ जो लूट सको सो लूट पर अद्भुत एकता कायम थी! और हवा में एक सनसनी सी कि इलाके की खुशहाली हज़ार पालों वाली सतरंगी नावों पर सवार होकर आ रही है। अब नहीं रहेगा यह इलाका बैकवर्ड! दिल्ली क्या, अमरीका से चली तरंगें सीधे यहां की एंटीना से टकराएंगी! यहां के सारे लड़के धोनी और लड़कियां पामेला हो जाएंगी! धरती जैसे सचमुच सोना-चांदी और हीरा-मोती उगलने लगेगी! तब भला एक सिमरी के कारण लोग कैसे इस एन.एच. पर संकट आने देते?
ठेकेदारों के साथ वे सब पहुंच गए सीमरी के पास। ठेकेदार और उसके साथ वाले बाहरी लोग थे, उसकी भाषा सिमरी दीदी नहीं समझती थी। सिमरी दीदी की भाषा भी वे नहीं जानते थे। लेकिन मुखिया-सरपंच और गांव के बाबू-बबुआन भी उन्हीं की भाषा बोलने लगे। हारकर सिमरी ने कहा, ‘खेत-पथार ले लो, घर भी उजाड़ दो! मगर सड़क के किनारे में इस पाकड़ को छोड़ दो। बाट-बटोही को छाया ही देगा।’
वहां गांव भर की भीड़ थी। उस भीड़ में एक चौदह-पन्द्रह साल की लड़की थी। उसने स्कूल की अपनी किताब में पढ़ा था कि शेरशाह ने प्रजा की भलाई के लिए क्या-क्या किया था! उसको वे पंक्तियां याद हो आईं जिसमें ग्रैंड ट्रंक रोड बनाने के साथ शेरशाह ने कोस पर कुएं खुदवाए थे, सराय बनवाए थे... आदि के जिक्र के साथ यह भी था कि सड़क के दोनों ओर छायादार पेड़ लगवाए थे। उस लड़की ने वह उद्धरण पूरा का पूरा तत्क्षण सुनाकर जहां सिमरी का साथ दिया, वहीं बाकी सब को झटका! और गुस्साकर उस लड़की के बाप ने उसको तमाचे मारे! सिमरी के कांपते होंठ कांपकर ही रह गए! उस पर किसी के लाख मान-मनौव्वल का कोई असर नहीं हुआ। वह चुपचाप जाकर पाकड़ गाछ की जड़ में चिपककर लोट गई। आखिर भले लोगों में से सरपंच साहेब ने कहा, ‘चलो दीदी, तुम्हारी ही जीत हुई। गाछ नहीं कटेगा। मगर घर तो यहां से हटाने दोगी न! इस कागज पर अंगूठा निशान लगाओ और चलो। स्कूल के पास वाली गैरमजरुआ जमीन पर आज ही तुम्हारा नया घर बनवा देते हैं, तब तक तुम हमारे घर चलो!’
‘सही बात दीदी!’ मुखिया जी ने जोड़ा, ‘तुम जिओगी ही कितने दिन! और तुम्हारे बाद कोई भोगनहार भी तो नहीं जिसके लिए स्थायी बासगीत चाहिए!’ सिमरी चुप हो गई।
सिमरी दीदी का नया घर शाम होने से पहले ही तैयार हो गया। उसमें एक चारपाई भी डलवा दी गई। मुआवजे के कुछ रुपए के अलावा उसके घर में दाल, चावल, आटा, नमक जैसी जरूरी चीजे ही नहीं; बिस्कुट-बे्रडपीस, अंकल चिप्स-कुरकुरे जैसी अजनबी-अपरिचित चीजों के साथ-साथ फुटको शीतल पेय की कुछ बोतलें भी थीं। शायद ये सब ठेकेदारों के कैम्प में अतिरिक्त पड़े रहे होंगे!
सिमरी कई दिनों तक गुमसुम रही। उस हालत में भी अलस्सुबह से देर शाम तक वह उसी पाकड़ के नीचे बैठी रहती थी। काफी अंधेरा होने के बाद वह नए घर में लौटती थी। यह सिलसिला कई दिनों तक चला। इस बीच ठेकेदार या उसका कोई आदमी गाछ काटने या उस बाबत बात करने नहीं आया। सिमरी भी थोड़ा-थोड़ा सहज और निश्चिंत होने लगी थी। करीब पन्द्रह दिन ऐसे ही बीत गए थे। वह वैसाख पूर्णिमा की रात थी। सिमरी ने भयंकर सपना देखा! कि बहुत तेज आंधी आई है...उस आंधी में सारे फूसघर, सारे गाछ-वृक्ष उड़े चले जा रहे हैं...उसी के साथ उसका पाकड़ भी उड़ा जा रहा है! वह इधर से उधर दौड़ रही है...गिर रही है...आक्रोश कर रही है। जब उसकी नींद टूटी, वह पसीने से तर-ब-तर थी। सांस भी काफी तेज! मगर वह एक झटके में उठ बैठी। बगल में पड़े लोटे से मुंह लगाकर उसने पानी पिया और चारपाई से टिकी लाठी लेकर बाहर निकली। भोरुकबा के अलावा ज्यादातर तारे मंद पड़ रहे थे, पूरब के आसमान में हल्की-हल्की ललछाहीं आने लगी थी।
लाठी टेकते-टेकते सिमरी दीदी पकड़िया चौक पहुंची। भौंचक्की-सी खड़ी उसने चारों तऱफ देखा। पाकड़ गाछ कहीं नहीं था। न उसके कटने का कोई निशान, न एक भी डाल, न कोई पत्ता! एक क्षण के लिए उसे भ्रम हुआ कि वह कहीं और तो नहीं पहुंच गई है। मगर ऐसा था नहीं। जगह वही थी, जहान बदल गई थी। वह करीब घंटे भर वहां रही। लोग-बाग दिशा-मैदान को निकलने लगे थे और उधर ही आ रहे थे। सूरज का गोला बाहर आया था। हाइवे से लगातार ट्रकें आ-जा रहीं थीं। उसी में से किसी ट्रक को उसने हाथ के इशारे से रुकवाया! और उसके बाद वह कहां गई किसी को नहीं मालूम। उस गाछ वाली जगह पर फुटको शीतल पेय की होर्डिंग लहरा रही है जिसमें बोतल के भीतर एक जलपरी मस्ती में तैरती नजर आती है।

अनुराग मुस्‍कान का चौथा बंदर (व्‍यंग्‍य-संग्रह) जारी

अनुराग मुस्‍कान का चौथा बंदर (व्‍यंग्‍य-संग्रह) जारी

चौथा बंदर (व्‍यंग्‍य-संग्रह) : अनुराग मुस्‍कान




मूल्य  सजिल्द : 290 .00
प्रसन्‍नता के साथ ज्ञातव्‍य कि सुपरिचित पत्रकार और व्‍यंग्‍यकार अनुराग मुस्‍कान का पहला व्‍यंग्‍य-संग्रह आज ही हमारे प्रकाशन से पाठकों के लिए जारी किया जा रहा है। पुस्‍तक आप सीधे खरीद सकते हैं या डाक द्वारा मंगवा सकते हैं।
पुस्‍तक के बारे में प्रख्यात व्‍यंग्‍यकार ज्ञान चतुर्वेदीका कहना है : 
''अनुराग के लेखन में वैसा बहुत कुछ दिखता है जैसा ज्‍यादातर दिखता नहीं है। यह व्‍यंग्‍य-संग्रह अपनी विशेषताओं और सीमाओं के बीच भीड़ से अलग लगेगा, यह मैं कह सकता हूं। यही बड़ी बात है, वरना आजकल यह कह पाने को भी तरस जाता हूं।''  

पुस्तक अंतिका प्रकाशन से नगद सीधे खरीदने पर सजिल्द 200/-  में प्राप्त कर सकते हैं।
घर बैठे डाक/कोरियर से भी पुस्तक मंगवा सकते हैं इसके लिए आपको मात्र 220 /- भेजना है। यह राशि मनीआर्डर / ड्राफ्ट / एट-पार - मल्टीसिटी चेक ( दिल्ली से बाहर का लोकल क्लीयरिंग चेक स्वीकार्य नहीं) अंतिका प्रकाशन के नाम निम्न पते पर भेजना है....
अंतिका प्रकाशन
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गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा







गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
वो जिसे हर रात ढूंढती हूं
एक दिन नजर आया था वो तारा
सब तारों में अकेला था
जाने मुझे ऐसा क्‍यों लगा
जैसे मुझसा था वो तारा

गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
हर रात जागकर देखती थी
पर नहीं मिला मुझे कहीं वो तारा
एक दिन नजर आया था 
जी भरकर देखा था मैंने उसे
कोई नहीं था दोस्‍त उसका
सब तारों में अकेला था वो तारा

गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
नहीं मिला वो उस दिन के बाद कहीं मुझे
आज भी जब कभी सोचती हूं उसके बारे में
जाने क्‍यों मुझे ऐसा लगता कहीं वो मैं ही तो नहीं
जिसका ना कोई दोस्‍त है ना ही कोई साथी
रहती है अकेली बिल्‍कुल उस तारे की तरह

आज भी गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
लेकिन मुझे पता है 
जहां भी है वो है मुझे जैसा ही अकेला
गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा....

नलिन नाथ (NALIN NATH)
जादूगर
अमेय नाथ

एक बार की बात है। एक बच्चा जादू ·का खेल देखने के लिए रोने लगा। उसके पापा ने उसे समझाया कि‍ जादू आखों का धोखा है। लेकिन उसने पापा की बात नहीं मानी और वह जि़द करने लगा। पापा ने उसे डाँटा।
लेकिन वह तब भी अपनी जिद पर अड़ा रहा। अंत में उसके पापा ने उससे वादा किया क‍ि रविवार ·को उसे जादू ·का खेल दिखाने ले जाएँगे।
अगले रविवार की सुबह बच्चे ने पापा से जादू ·का खेल देखने जाने के लिए कहा। उसके पापा ने उसे जादू का खेल दिखाने ले गए।
वहाँ पर उसने कई खेल देखे। एक खेल में हाथ पर पतला कागज रखकर ब्लैड से ·काटा जाता है और न ही हाथ  कटता है और न कागज।
घर आकर बच्चे ने वही खेल दोबारा ·किया और उसका हाथ कट गया। कटे हाथ लेकर बच्चा पापा के पास गया।
पापा ने उसकी बैंडेज करवा दी और कहा, ''मैंने बताया था न कि जादू आँखों का धोखा है।''
''बच्चे ने गलती स्वीकार की और आगे जिद न करने का निश्चय कर लिया।"

अमेय नाथ
कक्षा : 4 सी
उम्र : 10 वर्ष

अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की सम्पूर्ण सूची :

                                        
अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की सम्पूर्ण सूची :



                       पुस्तक सूची :



                                      सजिल्द 


मीडिया, समाज  और राजनीति





डिज़ास्टर : मीडिया एण्ड पॉलिटिक्स: पुण्य प्रसून वाजपेयी प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
राजनीति मेरी जान : पुण्य प्रसून वाजपेयी प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु.300.00
यहाँ मुखौटे बिकते हैं  : प्रभात शुंगलू  प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.140.00
देखते रहिये : रवीश कुमार प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.130.00
पालकालीन संस्कृति : मंजु कुमारी प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 225.00
स्त्री : संघर्ष और सृजन : श्रीधरम प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु.200.00
अथ निषाद कथा : भवदेव पाण्डेय प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु.180.00

आलोचना


इतिहास : संयोग और सार्थकता : सुरेन्द्र चौधरी प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.450.00
हिन्दी कहानी : रचना और परिस्थिति : सुरेन्द्र चौधरी प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.550.00
साधारण की प्रतिज्ञा : अंधेरे से साक्षात्कार : सुरेन्द्र चौधरी प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.350.00
बालकृष्ण भट्ट और आधुनिक हिन्दी आलोचना का आरंभ : अभिषेक रौशन प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.390.00

रेखाचित्र / कथा-डायरी
हमसफ़रनामा : स्वयं प्रकाश प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.225.00

एक कहानीकार की नोटबुक : स्वयं प्रकाश प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.250.00
इस उस मोड़ पर : चन्द्रकला त्रिपाठी प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.200.00 
सूपत मातृभूमि के(गजेन्‍द्र नारायण सिंह, नेपाल) : अनिल कु. झा / कौशलेन्‍द्र मिश्र  प्र. वर्ष 2010  मू. रु. 300.00


रंगमंच

बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच : अशोक भौमिक प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.225.00

नाटक

सरोज का सन्निपात : विद्यासागर नौटियाल  प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 
बर्बरीक उवाच : कुणाल  प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 
दो रंग नाटक (उचक्कों का कोरस/बड़ा नटकिया कौन) : अविनाश चन्द्र मिश्र प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 


शिक्षा और सामाजिक चिंतन
एक कहानीकार की नोटबुक : स्‍वयं प्रकाश प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्‍य रु. 250.00
जस देखा तस लेखा : डॉ. योगेन्द्र प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.400.00
अपने समय के सवाल : विष्णु नागर प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.250.00
अथ निषाद कथा : भवदेव पाण्डेय प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु.180.00
उपन्यास
 

स्वर्ग दद्दा! पाणि, पाणि : विद्यासागर नौटियाल प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 
नन्दित नरक में : हुमायूं अहमद प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 145.00

मोनालीसा हँस रही थी : अशोक भौमिक प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
माइक्रोरोस्कोप : डॉ. राजेन्द्र कुमार कनौजिया प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.200.00
हारिल : हितेन्द्र पटेल प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.200.00

कहानी-संग्रह

रेल की बात : हरिमोहन झा प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु.125.00
छछिया भर छाछ : महेश कटारे प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
कोहरे में कंदील : अवधेश प्रीत प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
शहर की आखिरी चिडिय़ा : प्रकाश कान्त प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
पीले कागज़ की उजली इबारत : कैलाश बनवासी प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
नाच के बाहर : गौरीनाथ प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
आइस-पाइस : अशोक भौमिक प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 180.00
कुछ भी तो रूमानी नहीं : मनीषा कुलश्रेष्ठ प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
बडक़ू चाचा : सुनीता जैन प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 195.00
भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान : सत्यनारायण पटेल प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 200.00
अमरीका मेरी जान : हरिओम प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.200.00
भुतालिया और अन्य कहानियाँ : निसार अहमद प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.200.00
होशियारी खटक रही है 
: सुभाष चन्द्र कुशवाहा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.200.00
बहेलिये  : विपिन कुमार शर्मा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.200.00
बाणमूठ : मुरारी शर्मा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.200.00

कविता-संग्रह

स्याही ताल : वीरेन डंगवाल प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु. 200.00
घर के बाहर घर : विष्णु नागर प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00

एक बहुत कोमल तान : लीलाधर मंडलोई प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 
वे जो लकड़हारे नहीं हैं : सुरेश सेन निशांत प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00

खिड़कियाँ झाँक रहीं कमरे के पार : प्रमोद उपाध्‍याय प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्‍य रु. 200.00
बूँदों के बीच प्‍यास : बहादुर पटेल  प्रकाशन वर्ष  2010 मूल्‍य रु. 200.00
पानी का पता पू्छ रही थी मछ्ली : कमलेश्वर साहू प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 
या : शैलेय प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 160.00
जीना चाहता हूँ : भोलानाथ कुशवाहा प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 300.00
कब लौटेगा नदी के उस पार गया आदमी : भोलानाथ कुशवाहा प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु. 225.00
लाल रिब्बन का फुलबा : सुनीता जैन प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु.190.00
लूओं के बेहाल दिनों में : सुनीता जैन प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 195.00
फैंटेसी : सुनीता जैन प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 190.00
दु:खमय अराकचक्र : श्याम चैतन्य प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 190.00
कुर्आन कविताएँ : मनोज कुमार श्रीवास्तव प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 150.00
हेरवा : सुनीता जैन प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.200.00

रसोई की खिड़की में : सुनीता जैन प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.200.00


ग़ज़ल-संग्रह

अजनबी शहर : ज़ु्बैरुल-हसन ग़ाफ़िल प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु. 250.00




                                       पेपरबैक संस्करण
आलोचना

इतिहास : संयोग और सार्थकता : सुरेन्द्र चौधरी प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.210.00
हिन्दी कहानी : रचना और परिस्थिति : सुरेन्द्र चौधरी प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.275.00
साधारण की प्रतिज्ञा : अंधेरे से साक्षात्कार : सुरेन्द्र चौधरी प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.160.00
 

रेखाचित्र / कथा-डायरी
हमसफ़रनामा : स्वयं प्रकाश प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.110.00

एक कहानीकार की नोटबुक : स्वयं प्रकाश प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.120.00
इस उस मोड़ पर : चन्द्रकला त्रिपाठी प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.100.00 


रंगमंच

बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच : अशोक भौमिक प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.110.00



नाटक

सरोज का सन्निपात : विद्यासागर नौटियाल  प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 90.00 
बर्बरीक उवाच : कुणाल  प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 100.00 
दो रंग नाटक (उचक्कों का कोरस/बड़ा नटकिया कौन) : अविनाश चन्द्र मिश्र प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 100.00 


मीडिया और समाज
यहाँ मुखौटे बिकते हैं  : प्रभात शुंगलू  प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.140.00
देखते रहिये : रवीश कुमार प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.130.00



शिक्षा और सामाजिक चिंतन

जस देखा तस लेखा : डॉ. योगेन्द्र प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.200.00

अपने समय के सवाल : विष्णु नागर प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.120.00

उपन्यास



स्वर्ग दद्दा! पाणि, पाणि : विद्यासागर नौटियाल प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 100.00

नन्दित नरक में : हुमायूं अहमद प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 70.00
मोनालीसा हँस रही थी : अशोक भौमिक प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु.100.00
माइक्रोस्कोप : डॉ. राजेन्द्र कुमार कनौजिया प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.100.00
हारिल : हितेन्द्र पटेल प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.100.00

समंदर : मिलिंद बोकील प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्‍य रु. 100.00

कहानी-संग्रह


रेल की बात : हरिमोहन झा प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु. 70.00
छछिया भर छाछ : महेश कटारे प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 100.00
कोहरे में कंदील : अवधेश प्रीत प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 100.00
शहर की आखिरी चिडिय़ा : प्रकाश कान्त प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 100.00
पीले कागज़ की उजली इबारत : कैलाश बनवासी प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 100.00
नाच के बाहर : गौरीनाथ प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु. 100.00
आइस-पाइस : अशोक भौमिक प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 90.00
कुछ भी तो रूमानी नहीं : मनीषा कुलश्रेष्ठ प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 100.00
भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान : सत्यनारायण पटेल प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु. 90.00
अमरीका मेरी जान : हरिओम प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु. 100.00
 
होशियारी खटक रही है : सुभाष चन्द्र कुशवाहा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.100.00
बहेलिये  : विपिन कुमार शर्मा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.100.00
बाणमूठ : मुरारी शर्मा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु.100.00

कविता-संग्रह

स्याही ताल : वीरेन डंगवाल प्रकाशन वर्ष 2009 मूल्य रु.100.00 
घर के बाहर घर : विष्णु नागर प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00 
एक बहुत कोमल तान : लीलाधर मंडलोई प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00
वे जो लकड़हारे नहीं हैं : सुरेश सेन निशान्‍त प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्‍य रु. 100.00




                                        
मैथिली पोथी


विकास ओ अर्थतंत्र (विचार) : नरेन्द्र झा प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 250.00
संग समय के (कविता-संग्रह) : महाप्रकाश प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु. 100.00
एक टा हेरायल दुनिया (कविता-संग्रह) : कृष्णमोहन झा प्रकाशन वर्ष 2008 मूल्य रु. 60.00
दकचल देबाल (कथा-संग्रह) : बलराम प्रकाशन वर्ष 2000 मूल्य रु. 40.00
सम्बन्ध (कथा-संग्रह) : मानेश्वर मनुज प्रकाशन वर्ष 2007 मूल्य रु. 165.00
 

अनुभूति (कथा-संग्रह) : पन्ना झा प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 180.00
भोथर पेंसिल सं लिखल (कथा-संग्रह) : आदि यायावर प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 180.00
कि (कविता-संग्रह) : मानेश्वर मनुज प्रकाशन वर्ष 2010 मूल्य रु. 200.00



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