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World Book Fair, 2013 Mein Antika Prakashan

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अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद से हाल में प्रकाशित कुछ किताबें....



ISBN 978-83-80044-84-2
Rs. 200/- INR (HB)


उड़ते हैं अबाबील : सुषमा नैथानी


कविता में खासतौर से स्मृति अप्रत्याशित काम करती है और इस तरह कल्पना का रूप ले लेती है कि उसमें लौटना 'किसी भूगोल या समय में नहीं', बल्कि कल्पना में आगे जाना बन जाता है। हो सकता है यह एक असंभव वापसी हो और ऐसी जगहों पर जाना हो जिनसे 'शायद मिलना नहीं होगा।' लेकिन यह ऐसी संवेदना है जो अतीत के मोह से ग्रस्त नहीं होती, भावुकता में विसर्जित नहीं होती, बल्कि जीवन की सार्थकता और सामथ्र्य बन जाती है। सुषमा नैथानी के पहले ही संग्रह की ज़्यादातर कविताओं में स्मृति के ऐसे आयाम दिखाई देते हैं। यहाँ एक प्रवासी संवेदना की, अपनी अंतर्भूमि से दूर जाने, वहाँ से अतीत को देखने और उसकी ओर लौटने की भी एक उड़ान है। आपस में घुलते-मिलते-विलोप हो जाते क्षणों, परिचयों और मित्रताओं से बनी हुई एक पूरी पृथ्वी है जहाँ बचपन के स्कूल के बिंब दूर देश में अपने बच्चे के लिए स्कूल की तलाश से जुड़ जाते हैं, पहाड़ के जंगलों-खेतों और भूख की कहानी भूमंडलीकरण में 'ग्लोबल होते जाते मुनाफे' से टकराने लगती है। इन कविताओं में छूटे हुए पहाड़ के बिंब घटाटोप बादलों की तरह छाये हुए हैं, लेकिन उनके बरसने के बाद यह पृथ्वी ज़्यादा साफ और चमकीली दिखाई देती है। 'बित्ते भर जगह में जंगली बकरी सी चढ़ती-उतरती औरतों' से लेकर 'अनगिनत युद्धों के काले दस्तखत' तक फैली हुई कविता समय-काल को लाँघने की कोशिश करती है और जिसका लौटना संभव नहीं है उसे अपनी उम्मीद में लौटते हुए देखती है और इस तरह अपनी स्मृति को देखना भी बन जाती है। एक नई तरह की और परिपक्व भाषा में विन्यस्त यह संवेदना 'अपने अंतर में बसी सुगंध से अपने छत्ते की शिनाख्त करती मधुमक्खियों' जैसी सहजता और 'करीने से सजे हुए बाग के बीच बुरांश के घने दहकते जंगल जैसी कौंध' से भरी हुई है।
—मंगलेश डबराल


परिचय
सुषमा नैथानी


जन्म : 1972, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड।
बचपन से खानाबदोशी का जीवन रहा है। स्कूली शिक्षा उत्तराखंड के कई छोटे शहरों में। बाद की पढ़ाई नैनीताल, बड़ौदा और लखनऊ में। 1998 से अमरीका में, जेनेटिक्स में शोध और अध्यापन। लिखना मेरे लिए खुद से बातचीत करने की तरह है, मन की कीमियागिरी है, और इस लिहाज से बेहद निजी, अंतरंग जगह लिखना फिर अपनी निजता के इस माइक्रोस्कोपिक फ्रेम के बाहर एक बड़े स्पेस में, अपने परिवेश, अपने समय के संदर्भ को समझना, अपनी बनीबुनी समझ को खंगालना भी है और संवाद की कोशिश भी। हिन्दुस्तानी में लिखते रहना अपनी भाषा, समाज और ज़मीन में साँस लेते रह सकने का सुकूँ है, जुड़े रहने का एक पुल है।
संपर्क :  sushma.naithani@gmail.com
वेबसाइट : http://swapandarshi.blogspot.com

''स्‍त्री स्‍वाधीनता का प्रश्‍न और नागार्जुन के उपन्‍यास'' : श्रीधरम

HB 395/-
स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न समकालीन भारत का एक प्रमुख प्रश्न है, जिस पर विचार करने के क्रम में सामंती और पूँजीवादी समाज दोनों की विकृतियों पर ध्यान देना आवश्यक है। स्त्री-विमर्श के दौर में स्त्री को मात्र 'देह' तक सीमित करना पूँजीवाद का चाकर होना है, जिसने नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के ज़रिए स्त्री-देह का एक खुला व्यवसाय-जाल प्राय: सभी देशों में फैला रखा है। श्रीधरम उन सचेत युवा लेखकों में हैं, जो भूमंडलीकृत विश्व में विश्व सुंदरी प्रतियोगिता और 'सेक्स टूरिज्म' की आकर्षक-मोहिनी चालों तक को समझते हैं और हमें सावधान भी करते हैं।
उपन्यासकार नागार्जुन पर कोई भी सार्थक-सुसंगत विचार स्त्री स्वाधीनता के प्रश्न को केन्द्र में रखे बगैर संभव नहीं है। पहली बार नागार्जुन के ग्यारह हिंदी उपन्यासों और दो मैथिली उपन्यासों पर गंभीर विचार-विवेचन स्त्री-स्वाधीनता के संदर्भ में श्रीधरम ने किया है। पहला अध्याय 'पराधीनता का यथार्थ' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने मातृसत्तात्मक समाज से लेकर सामंती-पूँजीवादी समाज तक की ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया पर गंभीर विचार किया है। उसके ध्यान में उत्तर आधुनिक समय भी है। नागार्जुन के उपन्यासों के यथार्थ को मिथिला के इतिहास और उसकी संस्कृति  के बगैर नहीं समझा जा सकता। मिथिला का सामंती समाज, ब्राह्मïणों के वर्चस्व, दरभंगा नरेश, राजा हरिसिंह देव द्वारा 1310 ई. में आरंभ की गई पंजी-व्यवस्था, इस व्यवस्था से उत्पन्न पंजीकार या घटक का एक नया वर्ग, बिकौआ प्रथा आदि ने स्त्री-दशा को विशेष रूप से प्रभावित किया।
यह पुस्तक नागार्जुन के उपन्यासों में चित्रित स्त्रियों को समग्रता में समझने के साथ मिथिलांचल और उसकी संस्कृति के एक रुग्ण पक्ष को समझने में भी सहायक है। इसमें एक ओर नागार्जुन की औपन्यासिक कृतियों में स्त्रियों के निजी दाम्पत्य, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन को समझा गया है, तो दूसरी ओर मिथिलांचल की एक तस्वीर भी पेश की गई है।
इस पुस्तक में विवाह-संस्था को स्त्रियों के हक में नहीं माना गया है। नागार्जुन के उपन्यासों में स्त्री-स्वाधीनता के प्रश्न को समझने के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है। परिशिष्ट में नागार्जुन पर छ: हिंदी और दो मैथिली कवियों की कविताओं से नागार्जुन का महत्त्व समझा जा सकता है। इस पुस्तक का हिंदी संसार में स्वागत होना चाहिए। यह उपन्यासकार नागार्जुन और उनके स्त्री-चिंतन को समझने के लिए एक जरूरी पुस्तक है।
—रविभूषण


परिचय : 

श्रीधरम
युवा कथाकार-समालोचक श्रीधरम का जन्म 18 नवम्बर, 1974 को चनौरा गंज, (मधुबनी, बिहार) में हुआ। मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा से हिंदी-साहित्य में एम.ए., जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एम.फिल. और भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. से 'नागार्जुन के साहित्य में स्त्री-स्वाधीनता का प्रश्न' विषय पर पीएच.डी.।
कई कहानियाँ और वैचारिक-आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित-चर्चित। हिंदी के अलावा मातृभाषा मैथिली में भी समान गति से सक्रिय। हिंदी त्रैमासिक 'बया', हिंदी मासिक 'कथादेश' और मैथिली त्रैमासिक 'अंतिकाÓ आदि पत्रिकाओं के संपादन से संबद्ध रहे।
'स्त्री : संघर्ष और सृजन' (2008), 'महाभारत' (पाठ्य-पुस्तक, 2007), 'स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न और नागार्जुन के उपन्यास' (2011) प्रकाशित। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा विदेशी छात्रों के लिए प्रकाशित पाठ्ïय-पुस्तक 'हिन्दी का इतिहास' (2007) का सह-लेखन एवं संपादन। शम्भुनाथ द्वारा संपादित पुस्तक '1857, नवजागरण और भारतीय भाषाएँ' (2008) में संपादन सहयोग। शीघ्र प्रकाश्य 'चन्द्रेश्वर कर्ण रचनावली' (पाँच खण्ड) का संपादन। 'नवजात (क) कथा' (कहानी-संग्रह) प्रकाश्य।
हिन्दी-मैथिली दोनों भाषाओं के कई महत्त्वपूर्ण चयनित संकलनों में कहानियाँ संकलित। कुछ कहानियाँ अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनूदित-प्रकाशित।
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, आगरा में विदेशी छात्रों एवं हिन्दीतर प्रदेश के अध्यापकों के बीच अध्यापन-प्रशिक्षण। सम्प्रति, गुरु नानक देव खालसा कॉलेज, देवनगर (दिल्ली विश्वविद्यालय) में असिस्टेंट प्रोफेसर (तदर्थ)।
ई-मेल : sdharam08@gmail.com

''बुरे समय में नींद''
HB 200.00 PB 100.00
जब मैंने पहली बार दिल्ली के 'आकाश दर्शन' में एक युवा स्वर को उत्पीडि़त पृथ्वी के गीत—बिहार के जमीनी दलित के गीत—गाते हुए सुना तो मैं सम्मोहन से भर गया। कुछ देर के लिए ऐसा लगा जैसे भोजपुर का कोई नंगे पाँव दलित भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के शहादत दिवस पर मयूर विहार के अभिजन, सभ्य समाज को आंदोलित करने चला आया हो।
शशिधर की इन कविताओं को जब मैंने सुना तो ऐसा महसूस हुआ कि भूमिहीन गरीब का जीवन उसी की भाषा, उसी के अंदाजे बयाँ में पूरे हाड़-मांस के साथ जीवंत हो गया है। यही कारण है कि शशिधर मेरे प्रिय कवि हो गए हैं, और मैं उनका मुरीद बन गया हूँ।
—वरवर राव

रामाज्ञा शशिधर की कविताएँ संवेदना की नई बनावट केसाथ-साथ यथार्थ को देखने परखने के अपने नज़रिए के कारण भी प्रभावित करती हैं। यह नई रचना दृष्टि आम आदमी के संघर्षों में उनकी सक्रिय भागीदारी की देन है। आज की कविता और कवियों को देखते हुए इसे दुर्लभ ही माना जाएगा। इसीलिए रामाज्ञा अपने समकालीनों में सबसे अलग हैं।
    वे किसान चेतना और प्रतिरोध के कवि हैं और इस रूप में नागार्जुन की परंपरा का विकास उनमें देखा जा सकता है। वे जानते हैं कि खेत में सिर्फ अन्न ही नहीं पैदा होते हैं, बल्कि फाँसी के फंदे के धागे, कफन के कपड़े और श्रद्धांजलि के फूल के उत्स भी खेत ही है। इस तरह किसान जीवन के संघर्ष ही नहीं, त्रासदी और विडंबनाओं की गहरी समझ भी शशिधर के पास है।
    शशिधर की संवेदना किसानों और बुनकरों की त्रासदी के चित्रण तक ही सीमित नहीं है। वे वर्तमान राजनीति के पाखंड को उजागर करने के साथ-साथ आज की कविता, कला और भाषा को लेकर भी गहरे सवाल उठाते हैं। जीवन-दृष्टि की यह व्यापकता ही उन्हें एक अलग काव्य व्यक्तित्व प्रदान करती है।
—मदन कश्यप


 रामाज्ञा शशिधर
02 जनवरी, 1972 को बेगूसराय जि़ले (बिहार) के सिमरिया गाँव में निम्नवर्गीय खेतिहर परिवार में जन्म। चार बहन-भाइयों  में अग्रज। दिनकर उच्च विद्यालय सिमरिया के बाद लनामिवि, दरभंगा से एम.ए. तक की शिक्षा। एम.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया एवं पीएच-डी. जेएनयू से।
2005 से हिन्दी विभाग, बीएचयू में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
गाँव में दिनकर पुस्तकालय के शुरुआती सांस्कृतिक विस्तार में 12 साल का वैचारिक नेतृत्व, कला संस्था 'प्रतिबिंबÓ की स्थापना एवं संचालन तथा इला$काई किसान सहकारी समिति के भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष। जनपक्षीय लेखक संगठनों के मंचों पर दो दशकों से सक्रिय। इप्टा के लिए गीत लेखन।
लगभग आधा दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का संपादन। दिल्ली से प्रकाशित समयांतर (मासिक) में प्रथम अंक से 2006 तक संपादन सहयोगी। ज़ी न्यूज, डीडी भारती, आकाशवाणी एवं सिटी चैनल के लिए छिटपुट कार्य।
प्रकाशित पुस्तकें : 'आँसू के अंगारे, 'विशाल ब्लेड पर सोई हुयी लड़की' (काव्य संकलन), 'संस्कृति का क्रान्तिकारी पहलू' (इतिहास), 'बाढ़ और कविता' (संपादन)। पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं के अलावा आलोचना, रिपोर्ताज और वैचारिक लेखन। 'किसान आंदोलन की साहित्यिक भूमिका' शीघ्र प्रकाश्य।
फिलहाल बनारस के बुनकरों के संकट पर अध्ययन।








''निगहबानी में फूल''
HB 200.00
वसंत सकरगाए का यह पहला कविता संग्रह है। पहले कविता संग्रह की तरह इसमें संशय भी है और उत्साह भी। बहुत कुछ कह डालने का उतावलापन भी है और बहुत कुछ कहने से अपने को रोक लेने का संकोच भी। एक नए कवि के पहले कविता संग्रह को पाठक हमेशा इस उम्मीद के साथ खोलता है कि वहाँ कहन का एक ताज़ा टटकापन ज़रूर होगा। अनुभवों में ताज़गी होगी। कुछ अक्सर अलक्षित रह जाने वाले हमारे आस-पास के दृश्य होंगे। जीवन की आपाधापी में ओझल हो गयी जीवन की नई सच्चाइयां होंगी। शिल्प में एक नई सी चमक होगी और भाषा में कुछ ऐसे शब्द होंगे जो हमारी भाषा का विस्तार करते हों। कहना न होगा कि वसंत सकरगाए की इन कविताओं में हमारे जीवन के अनेक चिरपरिचित दृश्यों, घटनाओं और अनुभवों में कुछ अदेखा रह जाने वाला, अक्सर अनकहा रह जाने वाला या कहें कि देखने-सुनने और कहे जाने से छूट जाने वाला कुछ है, जिसकी तरफ ये कविताएँ इंगित करना चाहती हैं। ये कविताएँ हमारे अनुभव में कुछ जोड़ती हैं। ये देखने में कुछ अलग से देखने को प्रस्तावित करती हैं। कई बार अचंभित करती हैं कि इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं था। नर्मदा की पट्टी के अनेक शब्द और लोकानुभव की अनुगूँजें इन कविताओं में देखी सुनी जा सकती हैं।
वसंत का अनुभव संसार फकत मध्यवर्ग तक सीमित नहीं है। उसकी कविताओं में जीवन के अनेक संस्तर प्रकट होते हैं। उसमें हमारे जीवन के अँधेरे कोने-कुचाले हैं तो उसके धुले-उजले कोने भी हैं। जीवन की विद्रूपताएँ और विडम्बनाएँ हैं तो सुंदरता और विस्मित करने वाली आकस्मिकताएँ भी हैं। इन कविताओं में विषयों की विविधता का एक बहुरंगी लैण्डस्केप है। यह एक ऐसी कविता है जो हमारी विपुल और बहुरंगी सामाजिकता के अनेक पहलुओं को छूती है, टटोलती है और उनके ढके-छिपे रहस्यों को खोलती है। इन कविताओं की राजनीतिक दृष्टि उसकी सामाजिकता में ही विन्यस्त है। कहा जा सकता है कि उसकी सामाजिकता और उसकी राजनीति को एक-दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है। उसके अन्तस में कहीं बहुत गहरे में अपनी पुरानी संस्कारबद्ध नैतिकताओं के आग्रह मौजूद हैं लेकिन वह इन नैतिकताओं पर भी सवाल उठाती हैं, उनसे जूझती हंै और टकराती हंै। मुठभेड़ करती हैं। वह पुरानी नैतिकताओं के सहज स्वीकार की कविता नहीं है। उसमें सही को स्वीकार करने का विवेक है और अस्वीकार करने का साहस भी।
वसंत की ये कविताएँ वस्तुत: समाज की परिधि पर खड़े उस आखिरी आदमी के पक्ष में बोलने वाली कविताएँ हैं जो अपनी फटी हुई चड्डी को अपनी हथेलियों से ढाँपने की कोशिश कर रहा है। जिसके लिये भाषा नया धागा कातने को आमादा है और जिसके लिये कविता सूखी घास में सुई को ढूँढ रही है। वस्तुत: ये कविताएँ आकाश में नक्षत्र की तरह चमकने या टूटने की चाहत की कविताएँ नहीं हंै ये तो अपनी ही ज़मीन पर जुड़कर टूटने और टूट कर फिर जुडऩे की इच्छा से भरी कविताएँ हैं।
— राजेश जोशी


वसंत सकरगाए 
02 फरवरी ( वसंत पंचमी) 1960 को मध्‍यप्रदेश के निमाड जनपद की तहसील हरसूद में (जो अब जलमग्‍न हो चुका) जन्‍म।
कविता के संस्‍कार अपनी जन्‍मभूमि से और परिष्‍कार सांस्‍कृतिक राजधानी तथा कर्मभूमि भोपाल में।
साहित्‍य और पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय।
वसुधा, साक्षात्‍कार, आकंठ, कला, समय, रंग, संवाद, वर्तमान साहित्‍य, कथन, कथादेश, अलाव आदि विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। आकाशवाणी तथा कई साहित्‍य-प्रसंगों में शिरकत। सांस्‍कृतिक यात्राएं और रचनात्‍मक सक्रियता के लिए पुरस्‍कृत। 
धर्मस्थल
Price : HB 225/- PB 110/-
'धर्मस्थल में थावाच है विजन, जो इंजीनियर होकर विदेश में जा बसा है। थानायक कामिल का बालसखा। कामिल की पत्नी न बन सकी प्रेयसी-सी है दाक्षायणी; जो बेहद महत्त्वाकांक्षिणी है; और जिसकी मुखमुद्रा, मुद्राओं (धन) के दर्शन से ही, लगता है, खिलती-खुलती है।
उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र है आकर्षक व्यक्तित्व का धनी कामिल का मूर्तिकार पिता ! यह ऐसा मुर्तिकार है जो अपनी दृष्टि की भास्वर निर्मलता, सोच की उदग्र उदात्तता के लिए, अपनी सौंदर्योन्वेषिनी दृष्टि के लिए, मूर्तिशिल्प हित हेतु किए गए अपने चिंतन के लिए पाठक की संवेदना में गहरे भीतर जा धँसता है।
प्रियंवद की लेखन-यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा शायद ही संभव हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय-व्यवस्था के वधस्थल या क़त्‍लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज़ है। यह आयातित भारतीय दंड-संहिता, जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है, में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न  खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्त्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।
इतनी खूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलत: इतिहासविद माने जानेवाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी।
धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं, जज जल्लाद तो नहीं? मुवक्किल, कचहरी के मकडज़ाल में फँसा, मरता निरीह कीड़ा तो नहीं?
निश्चय ही यह उपन्यास अपनी अंतर्वस्तु के लिहाज से भी हिन्दी साहित्य की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।


परिचय : प्रियंवद
जन्म : 22 दिसम्बर, 1952 कानपुर
शिक्षा : एम.ए. (प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति)
कृतियाँ : 'वे वहाँ कैद हैं, 'परछाई नाच, 'छुट्टी के दिन का कोरस' (उपन्यास), 'एक पवित्र पेड़', 'खरगोश', 'फाल्गुन की एक उपकथा', 'आईना घर' (कहानी-संग्रह), 'भारत विभाजन की अंत:कथा' (इतिहास) आदि पुस्तकें प्रकाशित।
'फाल्गुन की उपकथा' पर आधारित फिल्म 'अनवर' (2007) और 'खरगोश' (2008) फिल्म का स्क्रिप्ट-लेखन।
कथाक्रम सम्मान और विजय वर्मा पुरस्कार से सम्मानित।
संप्रति, स्वतंत्र लेखन और निजी उद्योग।
संपर्क : 15/269, सिविल लाईन्स, कानपुर-208001 (उ.प्र.)


लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना
Price : HB 225/- PB 110/-
'सपनों के ठूँठ पर कोंपल' और 'लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना' कहानियाँ सपने के ही बारे में हैं। इनसान मेहनत करनेवाला प्राणी है, प्रज्ञाशील और कमाऊ। काम से विकसित बुद्धि से वह कल्पनाओं का सृजन करता है। सपना देखता है कि आनेवाले कल की जि़ंदगी अधिक स्वेच्छा और सुख से भरी होगी। मनुष्य के लिए सबसे अधिक उपयुक्त। उम्र के उसी पड़ाव ने भगत सिंह, चेग्वेरा, नक्सलबाड़ी, श्रीककुलम और आज की क्रांति को भी जन्म दिया है। अगर वे सपने न होते तो समाज में प्रगति नहीं हुई होती। इसलिए पंजाबी कवि अवतार सिंह पाश कहते हैं कि सपनों का मर जाना ही खतरनाक होता है।
सत्यनारायण पटेल ने एक सपने के बारे में लिखा। एक टूटे सपने के फिर से हरा होने के बारे में। दोनों कहानियों का संदर्भ वर्तमान है। पिछले दो दशकों से राज़ करनेवाले साम्राज्यवादी वर्तमान में भविष्य के सपने को खतरे में डाल रहे हैं।
'सपनों के ठूँठ पर कोंपल' कहानी में सतीश के जीवन में एक के बाद एक कई घटनाएँ घट जाती हैं। सतीश की आँखों के सामने झोंपड़पट्ïटी में बसे लोगों को विस्थापित किया जाता है, जिस आदमी को वह समाजसेवी समझता है वह दलाल साबित होता है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर क्रांतिकारी बात करनेवाला सिंगूर और नंदीग्राम के मामले पर चुप्पी साध लेता, जो सतीश को अखरता है।
सतीश कभी अपने पिता के तेल-व्यापार को ही स्वार्थी धंधा समझता है, लेकिन जब पिता का जमा धंधा और उसके जैसे कई लोगों के छोटे-बड़े धंधे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पैरों तले कुचलते देखता है, तब वह दुख मिश्रित निराशा से भर उठता है। आत्महत्या करने की कोशिश करता है, लेकिन असफल रहता है और अस्पताल पहुँच जाता है। कभी जिस पवन को सतीश ने यशपाल, शरतचंद्र और प्रेमचन्द की किताबें पढऩे को दी थीं, वही पवन बसंत की बयान बनकर सतीश के सपनों के ठूँठ पर कोंपल उगा देता है।
'लाल छींटवाली लुगड़ी का सपना' पढ़कर मुझे तीन संदर्भ याद आए। किशनचंदर की एक कहानी में एक दलित युवक कम्युनिस्ट बनकर अच्छा-सा नाम रख लेता है, लाल कमीज़ पहनने की इच्छा की खातिर ज़मींदारी व्यवस्था से लड़तेे हुए अमर हो जाता है। सतीश चंदर की कहानी में एक युवती रेशमी साड़ी पहनने की इच्छा के कारण प्राणों से हाथ धो बैठती है। फिर सुप्रसिद्ध गायक गद्दर का गीत 'वंदना लो वंदनालम्मा' के बारे में कहने की ज़रूरत नहीं। उसमें एक माँ रेशमी कमीज़ सिलवाकर रखती है। दशहरे पर पहनकर जाने के लिए बेटे से कहती है, पर उनके जीवन में विजयादशमी का पर्व कब आएगा?
लेकिन, जब तक समुद्र में लहरें होंगी/आकाश में तारे होंगे/चाहे समुद्र में बड़बानल हो या आकाश में अमावस्या की रातें/धरती पर सपने देखने वाले इनसान रहेंगे। कुछ बरस पहले तक अजेय समझा जाने वाला स्टॉक एक्सचेंज के साँड का कूबड़ टूटकर गिर गया। रँभाने के बदले वह गुर्राने लगा है। जहाँ... सपनों के टूट जाने का डर था, वहाँ कंपनी डूब गई। आज पृथ्वी पर चाहे किसी का भी कब्जा हो, कभी न कभी यह भूमि-पुत्रों के अधीन होकर रहेगी।
वरवर राव
परिचय : सत्यनारायण पटेल
जन्म : 6 फरवरी, 1972 को देवास में।
दर्जन से ज़्यादा कहानियाँ और कई वैचारिक लेख महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
'भेम का भेरू माँगता कुल्हाड़ी ईमान' कहानी-संग्रह और 'लाल सलाम' शृंखला की कुछ संपादित पुस्तिकाओं के बाद यह उनका दूसरा संग्रह है। फोटोग्राफी, फिल्म और डॉक्यूमेंट्री निर्माण के साथ-साथ रंगमंच में गहरी रुचि। सामाजिक-सांगठनिक कार्यों में भी सक्रिय।
संपर्क : एम-II/199, अयोध्यानगरी, इंदौर-11 (म.प्र.)


पाँच का सिक्का 
Price : HB 225/- PB 110/-
सामाजिक चिंताओं से बाबस्ता रखनेवाले हिन्दी के युवा कथाकारों में जो कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं, उनमें अरुण कुमार 'असफल' एक सुपरिचित और भरोसेवाला नाम है। शहर-कस्बे की जिंदगी में संघर्षशील तबके की मुश्किलों के साथ-साथ उनकी हसरतों को जिस चाक्षुष और तलस्पर्शी भाषा में अरुण बयान करते हैं, ऐसा उनके समकालीनों में विरल है। ग्लोबल बाज़ार के इस दौर में दबे-कुचले लोगों के लिए जो नई-नई परेशानियाँ आई हैं और उन परेशानियों के बीच जो नई तरह की चुनौतियाँ बढ़ी हैं उनका बेहतरीन चित्रण इस संग्रह की कहानियों में हुआ है। महत्त्वपूर्ण कि ये बातें कथा-स्थितियों में इस तरह पगी हुई हैं कि इनकी पठनीयता और समस्याओं की गंभीरता कहीं बाधित नहीं होती।
'कंडम', 'पाँच का सिक्का', 'स्याही और तेल', 'पुरानी कमीजें' आदि अरुण की पहले से चर्चित ऐसी कहानियाँ हैं जिसे सिर्फ कथा-मर्मज्ञों ने ही नहीं, व्यापक पाठकों की भी पर्याप्त सराहना मिली है। जटिल से जटिलतर बातों को सहज रूप में कहने के उस्ताद कथाकार अरुण की नाल पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़मीन में इस कदर गहरे धँसी है कि उन्हें किसी लटके-झटके की ज़रूरत नहीं पड़ती। गौरतलब है कि आज जबकि ढेर सारे लोग अमूर्तता और काव्यात्मकता में पनाह खोज रहे हैं, तब भी अरुण सहज और सरल भाषा में सीधी बात कहने के पक्षधर हैं। तभी तो वह 'पाँच का सिक्का' के निनकू और उसकी माई जैसे यादगार चरित्र हिंदी कहानी को देते हैं।

परिचय : अरुण कुमार 'असफल'
जन्म : 18 जुलाई, 1968 को गोरखपुर में।
शिक्षा : गोरखपुर विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक, हैदराबाद से सर्वेयिक कोर्स।
कृतियाँ : हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। 'पौ फटने से पहले' के बाद 'पाँच का सिक्का' दूसरा कहानी-संग्रह है।
संप्रति, भारतीय सर्वेक्षण विभाग, जयपुर में कार्यरत।
संपर्क : आवास सं. 23, सेक्टर-3, निर्माण विहार-3, विद्याधर  नगर, जयपुर-302023 (राजस्थान)


नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं
Price : HB 200/- PB 100/-
हिंदी में कहानी की दुनिया में इस वक्त एक खलबली, एक उत्तेजना, एक बेचैनी है। एक जद्दोजहद जारी है कहानियों के लिए एक नया स्वरूप, नई संरचना, नया शिल्प पाने की। इस जद्दोजहद का हिस्सा अनिल यादव की कहानियाँ भी हैं। इस समय जबकि संकल्पनाएँ टूट रही हैं, प्राथमिकताएँ बदल रही हैं, हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन में नई सत्ताएँ और गठजोड़ उभर रहे हैं, आर्थिक संबंध तेजी से बदल रहे हैं और उसके नतीजे में सामाजिक ढांचा और यथार्थ जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैंस्वाभाविक है कि उन्हें व्यक्त करने की कोशिश में कहानी का स्वरूप वही न रहे, उसका पारंपरिक रूपाकार भग्न हो जाए। लेकिन अपने समकालीनों से अनिल यादव की समानता यहीं तक है और उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य इसमें नहीं है।
अनिल जानते हैं कि नए शिल्प के माने यह नहीं कि कहानी शिल्पाक्रांत हो जाए या भाषिक करतब को ही कहानी मान लिया जाए। ऐसी रचना जिसमें चिंता न हो, विचार न हो, कोई पक्ष न हो, किसी तरह की बौद्धिक मीमांसा न हो, वह महज लफ्जों का एक खेल होती है, कहानी नहीं। अनिल का सचेत चुनाव है कि वे कहानी की दुनिया में चल रहे इस फैशनेबल, आत्महीन खेल से बाहर रहेंगे। वे कहानियों के लिए किसी ऐसे समयहीन वीरान में जाने से इंकार करते हैं जहाँ न परंपरा की गाँठें हों, न इतिहास की उलझनें। वे अपने ही मुश्किल, अजाने रास्ते पर जाते हैं। तलघर, भग्न गलियों, मलिन बस्तियों, कब्रिस्तान, कीचड़, कचरे और थाने जैसी जगहों से वे कहानियाँ बरामद कर लाते हैं। तभी लिखी जाती हैं 'नगरवधुएँ अखबार नहीं पढ़तीं' और 'दंगा भेजियो मौला' जैसी अद्वितीय 'डार्क' कहानियाँ, इस पुरानी बात को फिर याद दिलाती हुई कि एक संपूर्ण और प्राणवान रचना केवल अनुभवों, विवरणों या सूचनाओं या केवल भव्य और आकर्षक शिल्प से नहीं बनती, वह बनती है दोनों की एकता से। 'लोक कवि का बिरहा', 'लिबास का जादू' और अन्य कहानियों में भी हम देखते हैं कहन का एक नया अंदाज़, नैसर्गिक ताना-बाना, संतुलित और सधा हुआ शिल्प, लेकिन अंतत: उन्हें जो कहानी बनाता है वह है जीवन की एक मर्मी आलोचना। इन कहानियों का अनुभवजगत बहुत विस्तृत है, उतना ही गझिन और गहरा भी। आज के कथा परिदृश्य में 'लोक कवि का बिरहा' जैसी कहानी का, जो एक ग्राम्य अंचल में एक लोकगायक के जीवन का, उसकी दहशतों, अपमान, अवसाद और संघर्ष का मार्मिक आख्यान हैै, समकक्ष उदाहरण तलाश पाना मुश्किल होगा, और ऐसी कहानी शायद आगे असंभव होगी।
इस वक्त हिंदी की दुनिया में हर जानी-पहचानी चीज़ के अर्थों में तोड़-फोड़ की जा रही है। जहाँ अस्पष्टता को एक गुण मान लिया जाए वहाँ अर्थों की स्पष्टता भी एक अवगुण हो सकती है। इन कहानियों में न अस्पष्टता है, न  चमकदार मुहावरे, न एकांत आत्मा का नाटक, न अनंत दूरी पर स्थित किसी सत्य को पाने की कोशिश या आंकाक्षा, न आत्मालाप, न आत्मा पर जमी गर्द को मिटाने की कोशिश। लेकिन इनमें दर्द से भरे चेहरे बेशुमार हैं जिन्हें आप स्पर्श कर सकते हैं।
योगेन्द्र आहूजा
परिचय : अनिल यादव
जन्म 1967 कानपुर। जड़ें पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जि़ले के दौलतपुर गाँव में। शिक्षा बीएचयू समेत कई विश्वविद्यालयों में। छात्र एवं किसान आंदोलनों में सक्रियता। पेशे से पत्रकार, फिलहाल अंग्रेज़ी दैनिक 'द पॉयनियर' में प्रधान संवाददाता। उग्रवाद और आदिवासी जीवन के अध्ययन के लिए उत्तर-पूर्व समेत देश के कई हिस्सों की यात्राएँ। कई यात्राएँ बेमकसद भी। सेन्टर फार साइंस एंड इनवैरॉन्मेंट, मीडिया फेलोशिप के तहत अरुणाचल प्रदेश में कार्य। संगम राइटर्स इन्टरनेशनल रेजिडेन्सी प्रोग्राम, 2010 में भागीदारी। इन दिनों लखनऊ में रिहाइश।

समय से लड़ते हुए
Price : HB 200/- PB 100/-
दुष्यंत के बाद व्यवस्था-विरोध को अपने समय-संदर्भों में शेरों के माध्यम से जिन कुछेक गज़लकारों ने जीवंत बनाए रखा, उनमें एक महत्त्वपूर्ण नाम नरेन्द्र का भी है।
'समय से लड़ते हुए' नरेन्द्र का दूसरा गज़ल संग्रह है, जिसमें उनकी 120 धारदार गज़लें शामिल हैं। हमारी आज की दुनिया को पूरी तरह खुशगवार, समस्या-विहीन, न्याय-पूर्ण, समता-मूलक, मानवीय सद्गुणों से युक्त होने का स्वप्न देखने वाले नरेन्द्र एक चेतस कवि के समान अपने समय की आवाज़ को एक पल के लिए भी अनदेखा नहीं करते। यह, एक तरह से राजनीतिक समय है और नरेन्द्र अपनी गज़लों में राजनीति-निरपेक्ष दिखने की कोशिश बिल्कुल नहीं करते। आम आदमी को सामने रखकर, जहाँ नरेन्द्र एक फैसलाकुन राजनीतिक लड़ाई आवश्यक समझते हैं, वहीं अपने भय से आदमी की मुक्ति भी उन्हें ज़रूरी लगती है। गज़लगो को वैज्ञानिक समझवाली जन-एकता भी अभीष्ट है। नरेन्द्र को आश्चर्य होता है कि जिन अल्प-संख्यकों को अविश्वास और संशय के दायरे में जकड़कर मुख्यधारा से अलग रखा जा रहा हो, जिन दलितों-वनवासियों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा हो, उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता? नरेन्द्र अपने शेरों में ऐसे अनेक असुविधाजनक सवाल उठाते हैं। यद्यपि चेतस कवि को पता हैआम आदमी के इस गुस्से का तअल्लुक समाजार्थिक स्थितियों से भी है।
बहरहाल, जीवन की अनगिन मुश्किलों के बीच 'समय से लड़ते हुए' में नरेन्द्र अपनी शायरी के मार्फत दुनिया को बेहतर और बेहतर बनाने की कोशिश निरंतर करते रहते हैं। उनकी यही कोशिश, उनके शेरों को पूरी तरह जीवंत, अर्थवान्ï और विश्वसनीय भी बनाती है।
जहीर कुरैशी

परिचय : नरेन्द्र
जन्म : 16 जनवरी, 1956
शिक्षा : एम.ए., डीएचएमएस (ऑनर्स)
प्रकाशित पुस्तकें : 'हँसते आँसू' (कविता-संग्रह), 'कोई एक आवाज़' (गज़ल-संग्रह), 'राजा सलहेस' (नृत्य नाटिका)।
हिन्दी-मैथिली में शताधिक कविता, गज़ल, कहानी, लेख आदि रचनाएँ प्रकाशित।
सम्प्रति : दैनिक सन्मार्ग, राँची में सहायक संपादक।
स्थायी पता : पुनर्नवा, दिग्घी पश्चिम, मिश्रटोला, दरभंगा-846004 (बिहार)

पुश्तों का बयान
Price : HB 200/-
राजेश सकलानी की कविताओं में एक निराली धुन, एक अपना ही तरीका और अनपेक्षित गहराइयाँ देखने को मिलती हैं। अपनी तरह का होना ऐसी नेमत (या कि बला) है जो हर कवि को मयस्सर नहीं होती, या मुआफि नहीं आती। राजेश हर ऐतबार से अपनी तरह के कवि हैं। वह जब जैसा जी में आता है वैसी कविता लिखने के लिए पाबन्द हैं, और यही चीज़ उनकी कविताओं में अनोखी लेकिन अनुशासित अराजकता पैदा करती है। उनकी कविता में एक दिलकश अनिश्चितता बनी रहती हैपहले से पता नहीं चलता यह किधर जाएगी। यह गेयता और आख्यानपरकता के बीच ऐसी धुंधली सी जगहों में अपनी ओट ढूँढ़ती है जहाँ से दोनों छोर दिखते भी रहें। ऐसे ठिकाने राजेश को खूब पता हैं।
राजेश व्यक्तिगत और राजनीतिक के दरम्यान फासला नहीं बनाते। वह मध्यवर्ग के उस तबके के दर्दमंद इंसान हैं जो आर्थिक नव-उदारीकरण  और लूट के इस दौर में भी जन-साधारण से दूर अपना अलग देश नहीं बनाना चाहता। जो मामूलीपन को एक नैतिक अनिवार्यता की तरहऔर इंसानियत की शर्त की तरहबरतता है। वह इस तबके की मौजूदगी और अब भी उसमें मौजूद नैतिक पायेदारी को लक्षित करते रहते हैं। राजेश एक सच्ची नागरिकता के कवि हैं, और अपने कवि को अपने नागरिक से बाहर नहीं ढूँढ़ते। शहर देहरादून को कभी इससे पहले ऐसा जि़म्मेदार और मुहब्बत करने वाला कवि नहीं मिला होगा।
वह अपनी ही तरह के पहाड़ी भी हैं। पहाड़ी मूल के समकालीन कवियों में पहाड़ का अनुभव दरअसल प्रवास की परिस्थिति या प्रवासी दशा की आँच से तपकर, और मैदानी प्रयोगशालाओं से गुज़रकर, ही प्रकट होता है। इस अनुभव की एक विशिष्ट नैतिक और भावात्मक पारिस्थतिकी है  जिसने बेशक हिन्दी कविता को नया और आकर्षक आयाम दिया है। राजेश सकलानी की कविता इस प्रवासी दशा से मुक्त है, और उसमें दूरी की तकलीफ नहीं है। इसीलिए वे पहाड़ी समाज के स्थानीय यथार्थ को, और उसमें मनुष्य के डिसलोकेशन और सामाजिक अंतर्विरोधों को, सर्वप्रथम उनकी स्थानीयता, अंतरंगता और साधारणता में देख पाते हैं। यह उनकी कविता का एक मूल्यवान गुण है।
राजेश की खूबी यह भी है कि वह बड़े हल्के हाथ से लिखते हैं : उनकी इबारत बहुत जल्दी ही, बिना किसी जलवागरी के, पाठक से उन्सियत बना लेती है। यकीनन यह एक लम्बी तपस्या और होशमंदी का ही हासिल है।
असद ज़ैदी

परिचय : राजेश सकलानी
जन्म : 20 फरवरी 1955, पौड़ी गढ़वाल।
स्कूली शिक्षा : उत्तर प्रदेश के विभिन्न नगरों में। एम.एस-सी. (कैमिस्ट्री), श्रीनगर, गढ़वाल।
पो. ग्रे. डिप्लोमा, इंडस्ट्रियल रिलेशंस एण्ड पर्सनल मैनेजमैन्ट, भारतीय विद्याभवन, नई दिल्ली
प्रकाशन : कविताएँ, कहानियाँ व समीक्षात्मक लेख महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। कई कहानियाँ आकाशवाणी से प्रसारित।
'सुनता हूँ पानी गिरने की आवाज़' काव्य संग्रह (वर्ष 2000)।
शुरू में एक दैनिक समाचार पत्र में कुछ समय तक कार्य किया।
'युगवाणी' साप्ताहिक/मासिक से एक लंबे समय से जुड़ाव। विशेष अंक 'जनधारा में संपादन सहयोग।
संप्रति, पंजाब नेशनल बैंक, देहरादून में कार्यरत
संम्पर्क : म.न. 9, मुख्य लेन, तपोवन एन्क्लेव, पो.आ. रायपुर, देहरादून-248008 (उत्तराखण्ड)www.antika-prakashan.com

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