समकालीन भारतीय चित्रकला : हुसैन के बहाने : अशोक भौमिक
हुसैन आज़ादी के बाद के भारतीय कला परिदृश्य में सबसे महत्त्वपूर्ण कलाकारों में से एक हैं। उन्होंने आधुनिक भारतीय कला को एक सुस्पष्ट दिशा दी है जो दुर्भाग्य से विकसित होते बाज़ार के अंधेरे में आम जनता के लिए लगभग ओझल रही है। मगर काफी समय बाद आज एक बार फिर हुसैन के चित्र चर्चा के केंद्र में है।
हुसैन और उनके बहाने समकालीन भारतीय चित्रकला के महत्त्वपूर्ण चित्रकार और उनके चित्र ही नहीं, इस दौर की चुनौतियों को लेकर भी एक मुकम्मल बहस को दिशा देने में प्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक की यह किताब कारगर सिद्ध होगी। इस किताब से इस दौर की कला मात्र को ही समझने में मदद नहीं मिलती बल्कि कला और समाज व बाज़ार के संबंधों एवं इससे जुड़ी अन्य जटिलताओं को भी समझने-सुलझाने में यह काम आएगी। हिंदी में यह अपने ढंग की पहली किताब है। बहसतलब, चाक्षुष और बेहद पठनीय भी!...
शिप्रा एक नदी का नाम है
मेरे साथ ऐसा बहुत कम हुआ है, जब मैंने कोई किताब हाथ में ली हो और एक बैठक में पढऩे की बाध्यता बन आई हो। अशोक भौमिक के साथ मेरी यह बाध्यता बन आई। 'शिप्रा’—यह किताब मुझे अपनी पीढ़ी के उन सपनों-आकांक्षाओं के रहगुज़र से लगातार साक्षात्कार कराती है...जब गुजिश्ता सदी के सातवें दशक में गांधी-नेहरू के भारत के नौजवानों की जेब में देखते-देखते माओ की लाल किताब आ गई। विश्वविद्यालयों के कैंटिनों से लेकर सड़क तक यह पीढ़ी परिवर्तनकामी बहस में उलझी रही, अपनी प्रत्येक पराजय में एक अर्थपूर्ण संकेत ढूँढ़ती रही।
ऐसा अकारण नहीं हुआ था। गांधी-नेहरू के बोल-वचनों की गंध-सुगंध इतनी जल्दी उतर जाएगी—लोकतंत्र के सपने इतनी शीघ्रता से बिखर जाएँगे—इसका कतई इम्कान नहीं था, मगर हुआ। शासक वर्ग के न केवल कोट-कमीज वही रहे, जहीनीयत और कायदे-कानून भी वही रहे जिसपर कथित आज़ाद मुल्क को चलना था। वे इम्प्रेलियिज़्म के इन्द्रधनुष से प्रभावित-प्रेरित होते रहे। इसके जादुई चाल से, आज मुक्त हो पाने का सवाल तक पैदा नहीं होता। 'शिप्रा एक नदी का नाम है’ पढ़ते हुए मुझे एक मई, 1942 के दिन सुभाष चन्द्र बोस के एक प्रसारण में कही बात का स्मरण हो आया है कि 'अगर साम्राज्यवादी ब्रतानिया किसी भी तरह यह युद्ध जीतती है, तो भारत की गुलामी का अंत नहीं।’ यह बात आज भी उतनी ही शिद्दत से याद की जानी चाहिए।
मगर दुनिया बदल चुकी है। विचारों के घोड़े निर्वाध दौड़ लगाते हैं। अभ्यस्त-विवश कृषक मज़दूर और मेहनतकश आम आदमी के क्षत-विक्षत स्वप्नों-आकांक्षाओं को आकार और रूपरंग देने के सोच का सहज भार नौजवानों ने उठाया।
शिप्रा थी, शिप्रा को लेखक ने नहीं गढ़ा। किसी भी पात्र को लेखक ने नहीं गढ़ा। वह अपने आप में है। ठोस है। उसकी साँसें अपनी हैं। यह अहसास हमेशा बना रहता है कि मैंने इन्हें देखा है। अपने अतीत में देखा है। आज भी कई को उसी ताने-बाने में देखता हूँ, तो ठिठक जाता हूँ।
लेखक ने सिर्फ यह किया कि उस दुर्घर्ष-दुर्गम दिनों को एक काव्य रूप दे दिया ताकि वह कथा अमरता को प्राप्त कर जाए। उसकी ध्वनि, उसकी गूँज प्रत्यावर्तित हो जाए, होती रहे। इसलिए और इसीलिए मैं अशोक भौमिक के लेखक के प्रति आभारी हूँ कि मुझे या हमारी पीढ़ी को एक आईना दिया।
—महाप्रकाश
अशोक भौमिक
समकालीन भारतीय चित्रकला में एक जाना-पहचाना नाम।
जन्म : नागपुर 31 जुलाई, 1953
वामपंथी राजनीति से सघन रूप से जुड़े रहे।
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक। प्रगतिशील कविताओं पर आधारित पोस्टरों के लिए कार्यशिविरों का आयोजन एवं आज भी इस उद्देश्य के लिए समर्पित।
देश-विदेश में एक दर्जन से ज़्यादा एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन।
'मोनालीसा हँस रही थी' पहला उपन्यास,
'आईस-पाईस' कहानी-संग्रह, 'बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच', 'शिप्रा एक नदी का नाम है' पुस्तकें प्रकाशित।
संप्रति, स्वतंत्र चित्रकारिता।
जन्म : नागपुर 31 जुलाई, 1953
वामपंथी राजनीति से सघन रूप से जुड़े रहे।
जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक। प्रगतिशील कविताओं पर आधारित पोस्टरों के लिए कार्यशिविरों का आयोजन एवं आज भी इस उद्देश्य के लिए समर्पित।
देश-विदेश में एक दर्जन से ज़्यादा एकल चित्र प्रदर्शनियों का आयोजन।
'मोनालीसा हँस रही थी' पहला उपन्यास,
'आईस-पाईस' कहानी-संग्रह, 'बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच', 'शिप्रा एक नदी का नाम है' पुस्तकें प्रकाशित।
संप्रति, स्वतंत्र चित्रकारिता।
डॉक्टर ग्लास : जलमार सॉडरबैरिये
डॉक्टर ग्लास : जलमार सॉडरबैरिये : अनुवादक : द्रोणवीर कोहली
'डॉक्टर ग्लास’ उन्नीसवीं सदी के अवसान काल के दौरान स्टॉकहोम नगर में घटित एक अनोखी प्रेम कहानी के परित: चलता स्वीडिश भाषा का यादगार उपन्यास है। डॉक्टर ग्लास जो कि पेशे से चिकित्सक (सर्जन) है एक बूढ़े पादरी की नवयौवना खूबसूरत बीवी के प्रति आसक्त हो जाता है। यह आसक्ति डॉक्टर ग्लास की मानसिक स्थिति मात्र ही नहीं बदलती, उसके दैनंदिन जीवन और व्यवहार को भी बदलने में उत्प्रेरक सिद्ध होती है। नायिका (मिसिज ग्रिगोरियस) डॉक्टर से यह गुजारिश करती है कि वह कुछ ऐसी बीमारी उसे बताए और इस बाबत पादरी को ऐसा सलाह दे कि पादरी अपनी बीवी मिसिज ग्रिगोरियस की देह से दूर रहे। थोड़े असमंजस के बाद डॉक्टर मान जाता है। और तब ऐसा करते-करते एक दिन उस पादरी को दवा के नाम पर ज़हर तक दे डालता है।
तमाम जद्दोजहद के बीच नैतिकता-अनैतिकता, जायज-नाजायज, धर्म-अध्यात्म आदि को लेकर डॉक्टर ग्लास लंबे अंतद्र्वंद्वों से गुज़रता है और आ$िखर पाता है कि वह जिस खूबसूरत स्त्री के प्रति इतने घनघोर प्रेम और सपने पाल रखा था वह उसके प्रेम में नहीं है। अपनी खूबसूरती से चकाचौंध पैदा करने वाली मिसिज ग्रिगोरियस की निजी जि़ंदगी और उसकी अपनी प्रेम कहानी का सच इस उपन्यास का चरम है।
लगभग सवा सौ वर्ष पहले के स्टॉकहोम, उसकी खूबसूरती और नगर-व्यवस्था आदि का वर्णन डायरी शैली में लिखे पत्रकार-नाट्ïयकार ज़लमार सॉडरबैरिए के इस उपन्यास को ज़्यादा विश्वसनीय और महत्त्वपूर्ण बनाता है। मूल स्वीडिश में 1905 में छपे इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद, नाट्यांतरण के अलावा इस पर बनी $िफल्म भी का$फी चर्चित और सराहनीय रही है।
ज़लमार सॉडरबैरिए
कथाकार-उपन्यासकार, कवि और नाटककार ज़लमार सॉडरबैरिए (Hzalmar Soderberge) का जन्म 02 जुलाई, 1869 को हुआ। मूल स्वीडिश में 1905 में प्रकाशित 'डॉक्टर ग्लास’ का अंग्रेज़ी अनुवाद 1963 में आया फिर इस पर फिल्म भी बनी। स्वीडिश भाषा में इनकी दो दर्जन से ज़्यादा कृतियाँ उपलब्ध हैं जिनमें से आधा दर्जन से ज़्यादा किताबें अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध हैं। उपन्यासकार सॉडरबैरिए पत्रकार के रूप में भी चर्चित रहे हैं। 14 अक्टूबर, 1941 को इनकी मृत्यु हुई।
द्रोणवीर कोहली
नौ मौलिक उपन्यासों एवं एक कहानी-संग्रह के रचयिता एवं संपादक द्रोणवीर कोहली अच्छे अनुवादक भी हैं।
फ्रेंच लेखक एमील ज़ोला के वृहद उपन्यास 'जर्मिनल’ का 'उम्मीद है, आएगा वह दिन’ शीर्षक से अनुवाद करने के अतिरिक्त इन्होंने समय-समय पर विश्व प्रसिद्ध कई रचनाकारों की रचनाओं को भी हिंदी में प्रस्तुत किया है।
इनका जन्म 1932 के आसपास हुआ। 'आजकल’, 'बाल भारती’, 'सैनिक समाचार’ साप्ताहिक के संपादक तथा आकाशवाणी में वरिष्ठ संवाददाता एवं प्रभारी समाचार संपादक की हैसियत से भी कार्य कर चुके हैं।
मोड़ पर : धूमकेतु
गूना-सदा-दाईजी की जिंदगी की परिघटनाएँ मिथिला समाज की कथाभूमि तक सीमित नहीं होकर व्यापक भारतीय समाज-राजनीति के बनते-बिगड़ते संबंध-सरोकारों की असलियत भी बयान करती हैं। मुख्यत: स्त्री-धन, हक-हकीकी के लिए सामंती अवशेष और वर्तमान हालात से प्रतिरोध ही उपन्यास का केंद्रीय कथ्य है, लेकिन गहरे स्तर पर यहाँ मानवीय संबंधों की कथा को खूबसूरती प्रदान की गई है। संबंधों की सहजता-स्वाभाविकता के लिए आकूल-व्याकूल पात्रों की गहन संवेदना यहाँ हृदयस्पर्शी है। नैतिकता और आदर्श के दिखावे की धज्जियाँ उड़ाने वाली यह कृति सादगीपूर्ण जीवन के नैसिर्गिक सौंदर्य और उसका महत्त्व उजागर करने में सफल हुई है।
हरिमोहन झा और नागार्जुन के बाद जिन रचनाकारों ने मैथिली उपन्यास को व्यापक कैनवास पर सर्वाधिक ऊँचाई और गरिमा प्रदान की, उनमें ललित और धूमकेतु अप्रतिम हैं। धूमकेतु का यह उपन्यास मैथिली में बीसवीं सदी के अवसान काल में प्रकाशित हुआ जो कि लेखक के भी जीवन का अंतिम वर्ष था। यूँ इसका लेखन 1991 में पूर्ण हो गया था, लेकिन दुखद रहा कि उपन्यासकार इसे पुस्तकाकार प्रकाशित नहीं देख पाए। मैथिली में प्रकाशन के लगभग बारह वर्ष बाद और लेखन पूर्ण होने के लगभग बाईस वर्ष बाद हिंदी पाठकों के लिए इसे प्रस्तुत करते व्यक्ति रूप से मुझे अपार प्रसन्नता हो रही है। 'मोड़ पर’ एक बेहद पठनीय और विचारोत्तेजक उपन्यास है। और यह कहने में कोई झिझक नहीं कि 'मोड़ पर’ मैथिली उपन्यास में मील का पत्थर है।
—गौरीनाथ
धूमकेतु
जन्म : 25 जनवरी, 1932
मृत्यु : 6 अगस्त, 2000
मैथिली के प्रख्यात कथाकार-उपन्यासकार और कवि। मैथिली में 'अगुरबान आ अन्य कथा’, 'उदयास्त’ कहानी-संग्रहों के अलावा 'मोड़ पर’ (2000) उपन्यास प्रकाशित। कई कविताएँ, लेख, कुछ फुटकर टिप्पणियाँ फिलहाल तक असंकलित हैं। 'मोड़ पर’ उपन्यास की गिनती मैथिली के दो-चार सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में होती है। साहित्य अकादेमी से धूमकेतु पर भारतीय साहित्य के निर्माता शृंखला में मोनोग्राफ भी प्रकाशित है।
स्वर्णा
जन्म : 29 जनवरी, 1974
शिक्षा : बी.ए., पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा इन ट्रांसलेशन
रचना : विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इनके अनुवाद पर्याप्त मात्रा में प्रकाशित हैं।
संपर्क : द्वारा-पी. के. झा
ए-28, गोकुल टेनामेंट, श्रीहरि टाउनशिप
अजवा रोड, बड़ोदा-390019 (गुजरात)
No comments:
Post a Comment