कहानी गाछ संग आस | |
गौरीनाथ | |
भरतपुर गांव के करीब से जो सड़क ज़िला मुख्यालय को जाती थी उसके बस स्टॉप का नाम पकड़िया चौक था। यहां दिन भर में दो दुनी चार बसें कुछ सेकेंड्स के लिए रुकती थीं जहां आसपास के गांवों के यात्री चढ़ते-उतरते थे। कोलतार वाली यह पक्की सड़क थी पूरब-पश्चिम। उत्तर-दक्षिण को बस्तियों की तरफ जाती खरंजा सड़कें थीं, पतली-पतली सी। दक्षिण की तरफवाली उसी खरंजा के पश्चिम और मेन रोड से सटा सिमरी दीदी का घर था। उसके घर से लगा, दक्षिण-पश्चिम के कोने पर एक विशाल पाकड़ का गाछ था। इस मामूली बस स्टॉप का नाम पकड़िया चौक जिसने भी दिया होगा, निश्चय ही उस विशाल पाकड़ के कारण ही। जैसा कि बूढ़े-बुजुर्ग बताते हैं, चौक और उसके इस नाम का इतिहास भी पैंतीस-चालीस साल से पुराना नहीं...क्योंकि उससे पहले यहां कोई पक्की सड़क नहीं थी और न ही कोई बस-गाड़ी तब इधर से गुजरती थी। लेकिन यह पाकड़ गाछ इस इलाके में तब भी सबसे उम्रदराज था। भरतपुर के नब्बे पार बुजुर्ग मल्लाह बिरजू कहते हैं, कि आजादी के पांच साल पहले पूरा इलाका कोसी के पेट में चला गया था। जब पानी उतरा तो यहां कोसों दूर तक बालू के बुर्ज के अलावा कहीं कोई बड़ा गाछ नहीं दिखता था, एक मात्र इस पाकड़ को छोड़।...और यह पाकड़ तब भी ऐसा ही विशाल और छतनार था! कोसी के उस उपद्रव के बाद यहां जब नई-नई बस्ती बसी, सिमरी के पिता ने अपना घर इसी पाकड़ के साये में बनाया-बसाया था। सिमरी के पिता खेती-बाड़ी के अलावा पुरहिताई करते थे। उनको सिमरी बिटिया के अलावा कोई लड़का नहीं, एक और लड़की ही थी। उन्होंने बारी-बारी दोनों के हाथ पीले किए। दोनों अपनी-अपनी ससुराल चली गईं। लेकिन सिमरी साल भर भी ससुराल नहीं बस पाई। उसका पति हैजा में मर गया तो उसके पिता उसे अपने घर लिवा लाये। और तब से सिमरी इसी भरतपुर में रही। वक्त गुजरता गया। उसके मां-बाप भी अपने दिन काटकर चले गए। कोसी बंध गई। गांव-घर आबाद हुए। विकास की आंधी आई। सड़कें-चौराहे बने, बसें चलने लगीं। सिमरी के घर के पास पकड़िया चौक आबाद हुआ। सिमरी तब पन्द्रह-सोलह वर्ष की थी जब विधवा हुई थी, मां-बाप के गुजरते-गुजरते पैंतीस-चालीस की हो गई थी और फिलवक्त पैंसठ-सत्तर के बीच। सिमरी के पास पाकड़ गाछ से लगे छोटे से फूसघर के अलावा उसी से लगी पुश्तैनी आठ-दस कट्ठा जमीन थी। उस बलुआही जमीन में फसल कम, परिश्रम ज्यादा उपजता था। उसी हाड़ तोड़ परिश्रम की बदौलत वह अपने पेट लायक अन्न और साग-सब्जी उगा लेती थी। काम-धाम के अलावा घर में कम, ज़्यादातर पाकड़ गाछ के साये में ही बैठी होती थी वह। वही उसका दालान भी था जहां गांव भर की औरतें और लड़कियां उसके साथ महफिल जमाती थीं। वहीं बैठ एक-दूसरे के सिर से जुएं हेरतीं वे सुख-दुख बतियाती थीं। बारहमासे और तरह-तरह के व्यवहार गीतों के गायन संग वह नई पीढ़ी को राग-भास सिखाती थी। तरह-तरह की अल्पनाएं और बुनाई-कढ़ाई की वह अघोषित पाठशाला थी जो वहां निरंतर चलती थी! और इन्हीं कारणों से सिमरी गांव भर की दीदी बनी हुई थी। सिमरी ने कभी किसी धाम की यात्रा नहीं की थी। टोले की औरतों के साथ शिवरात्रि जैसे कुछ अवसरों पर गांव से दो कोस दूर शिवमंदिर में जल चढ़ाने जरूर चली जाती थी। ऐसे ही जब कभी गांव से कुछ पुण्य-आत्माएं गंगा स्नान करने जातीं, तो वह उनको बस पर चढ़ते देखती और एक बार गंगा नहाने की मनोकामना करती थी। मगर किसी बस में कभी चढ़ नहीं पाई वह। बहुत बार चुनाव हुए, बहुत-सी सरकारें बनीं। सिमरी दीदी बहुत-बहुत चक्कर लगाकर सिर्फ एक राशन कार्ड ले पाई, जिसको दिखाकर मिट्टी तेल के अलावा कभी कुछ और नहीं लिया उसने। न पहचान पत्र वाला कार्ड मिला उसको, न बाढ़ या सूखा पर वितरित कोई राहत सामग्री। एक बार वोट देने का अवसर जरूर मिला उसको। सरपंच साहेब ने एक पर्ची उसको दिलवाते हुए बहुत अच्छी तरह समझाया था कि किस निशान पर ‘ठप्पा’ लगाना है, मगर वह ठप्पा लगाने पहुंची तो सरपंच के बताए निशान भूल गई। तब एक जगह गाछ जैसे निशान को देखकर वह बहुत खुश हुई और खुशी-खुशी उसने उसी पर ठप्पा लगा दिया था। और यही चूक, जैसा कि सिमरी दीदी कहती थी, उसके लिए ‘अपशकुन’ हो गई! दो साल भी तो नहीं बीते, उसके पाकड़ पर संकट आ गया! हुआ यह कि उसके घर के पास से जाने वाली सड़क एन.एच. हो गई! फोर लेन चौड़ी सड़क! नेशनल हाइवे! उसका घर, उसकी सारी जमीन और पाकड़ गाछ उसी सड़क में समाहित हो गए! चारों तरफ लोग एन.एच. की महिमा बखान रहे थे। किसी ने फुटकर बेकार पड़ी जमीन को बासगीत साबित किया, किसी ने भीट को उपजाऊ दिखाया, किसी ने डबरे की माटी सोने के भाव बेच गड्ढे खोदने का हर्जाना वसूलकर फाव में तालाब पा लिया! सब जगह ट्रक-ट्रैक्टरें घनघना रही थीं। चारों तरफ जो लूट सको सो लूट पर अद्भुत एकता कायम थी! और हवा में एक सनसनी सी कि इलाके की खुशहाली हज़ार पालों वाली सतरंगी नावों पर सवार होकर आ रही है। अब नहीं रहेगा यह इलाका बैकवर्ड! दिल्ली क्या, अमरीका से चली तरंगें सीधे यहां की एंटीना से टकराएंगी! यहां के सारे लड़के धोनी और लड़कियां पामेला हो जाएंगी! धरती जैसे सचमुच सोना-चांदी और हीरा-मोती उगलने लगेगी! तब भला एक सिमरी के कारण लोग कैसे इस एन.एच. पर संकट आने देते? ठेकेदारों के साथ वे सब पहुंच गए सीमरी के पास। ठेकेदार और उसके साथ वाले बाहरी लोग थे, उसकी भाषा सिमरी दीदी नहीं समझती थी। सिमरी दीदी की भाषा भी वे नहीं जानते थे। लेकिन मुखिया-सरपंच और गांव के बाबू-बबुआन भी उन्हीं की भाषा बोलने लगे। हारकर सिमरी ने कहा, ‘खेत-पथार ले लो, घर भी उजाड़ दो! मगर सड़क के किनारे में इस पाकड़ को छोड़ दो। बाट-बटोही को छाया ही देगा।’ वहां गांव भर की भीड़ थी। उस भीड़ में एक चौदह-पन्द्रह साल की लड़की थी। उसने स्कूल की अपनी किताब में पढ़ा था कि शेरशाह ने प्रजा की भलाई के लिए क्या-क्या किया था! उसको वे पंक्तियां याद हो आईं जिसमें ग्रैंड ट्रंक रोड बनाने के साथ शेरशाह ने कोस पर कुएं खुदवाए थे, सराय बनवाए थे... आदि के जिक्र के साथ यह भी था कि सड़क के दोनों ओर छायादार पेड़ लगवाए थे। उस लड़की ने वह उद्धरण पूरा का पूरा तत्क्षण सुनाकर जहां सिमरी का साथ दिया, वहीं बाकी सब को झटका! और गुस्साकर उस लड़की के बाप ने उसको तमाचे मारे! सिमरी के कांपते होंठ कांपकर ही रह गए! उस पर किसी के लाख मान-मनौव्वल का कोई असर नहीं हुआ। वह चुपचाप जाकर पाकड़ गाछ की जड़ में चिपककर लोट गई। आखिर भले लोगों में से सरपंच साहेब ने कहा, ‘चलो दीदी, तुम्हारी ही जीत हुई। गाछ नहीं कटेगा। मगर घर तो यहां से हटाने दोगी न! इस कागज पर अंगूठा निशान लगाओ और चलो। स्कूल के पास वाली गैरमजरुआ जमीन पर आज ही तुम्हारा नया घर बनवा देते हैं, तब तक तुम हमारे घर चलो!’ ‘सही बात दीदी!’ मुखिया जी ने जोड़ा, ‘तुम जिओगी ही कितने दिन! और तुम्हारे बाद कोई भोगनहार भी तो नहीं जिसके लिए स्थायी बासगीत चाहिए!’ सिमरी चुप हो गई। सिमरी दीदी का नया घर शाम होने से पहले ही तैयार हो गया। उसमें एक चारपाई भी डलवा दी गई। मुआवजे के कुछ रुपए के अलावा उसके घर में दाल, चावल, आटा, नमक जैसी जरूरी चीजे ही नहीं; बिस्कुट-बे्रडपीस, अंकल चिप्स-कुरकुरे जैसी अजनबी-अपरिचित चीजों के साथ-साथ फुटको शीतल पेय की कुछ बोतलें भी थीं। शायद ये सब ठेकेदारों के कैम्प में अतिरिक्त पड़े रहे होंगे! सिमरी कई दिनों तक गुमसुम रही। उस हालत में भी अलस्सुबह से देर शाम तक वह उसी पाकड़ के नीचे बैठी रहती थी। काफी अंधेरा होने के बाद वह नए घर में लौटती थी। यह सिलसिला कई दिनों तक चला। इस बीच ठेकेदार या उसका कोई आदमी गाछ काटने या उस बाबत बात करने नहीं आया। सिमरी भी थोड़ा-थोड़ा सहज और निश्चिंत होने लगी थी। करीब पन्द्रह दिन ऐसे ही बीत गए थे। वह वैसाख पूर्णिमा की रात थी। सिमरी ने भयंकर सपना देखा! कि बहुत तेज आंधी आई है...उस आंधी में सारे फूसघर, सारे गाछ-वृक्ष उड़े चले जा रहे हैं...उसी के साथ उसका पाकड़ भी उड़ा जा रहा है! वह इधर से उधर दौड़ रही है...गिर रही है...आक्रोश कर रही है। जब उसकी नींद टूटी, वह पसीने से तर-ब-तर थी। सांस भी काफी तेज! मगर वह एक झटके में उठ बैठी। बगल में पड़े लोटे से मुंह लगाकर उसने पानी पिया और चारपाई से टिकी लाठी लेकर बाहर निकली। भोरुकबा के अलावा ज्यादातर तारे मंद पड़ रहे थे, पूरब के आसमान में हल्की-हल्की ललछाहीं आने लगी थी। लाठी टेकते-टेकते सिमरी दीदी पकड़िया चौक पहुंची। भौंचक्की-सी खड़ी उसने चारों तऱफ देखा। पाकड़ गाछ कहीं नहीं था। न उसके कटने का कोई निशान, न एक भी डाल, न कोई पत्ता! एक क्षण के लिए उसे भ्रम हुआ कि वह कहीं और तो नहीं पहुंच गई है। मगर ऐसा था नहीं। जगह वही थी, जहान बदल गई थी। वह करीब घंटे भर वहां रही। लोग-बाग दिशा-मैदान को निकलने लगे थे और उधर ही आ रहे थे। सूरज का गोला बाहर आया था। हाइवे से लगातार ट्रकें आ-जा रहीं थीं। उसी में से किसी ट्रक को उसने हाथ के इशारे से रुकवाया! और उसके बाद वह कहां गई किसी को नहीं मालूम। उस गाछ वाली जगह पर फुटको शीतल पेय की होर्डिंग लहरा रही है जिसमें बोतल के भीतर एक जलपरी मस्ती में तैरती नजर आती है। |
World Book Fair, 2013 Mein Antika Prakashan
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गाछ संग आस : गौरीनाथ
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