गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
वो जिसे हर रात ढूंढती हूं
एक दिन नजर आया था वो तारा
सब तारों में अकेला था
जाने मुझे ऐसा क्यों लगा
जैसे मुझसा था वो तारा
गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
हर रात जागकर देखती थी
पर नहीं मिला मुझे कहीं वो तारा
एक दिन नजर आया था
जी भरकर देखा था मैंने उसे
कोई नहीं था दोस्त उसका
सब तारों में अकेला था वो तारा
गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
नहीं मिला वो उस दिन के बाद कहीं मुझे
आज भी जब कभी सोचती हूं उसके बारे में
जाने क्यों मुझे ऐसा लगता कहीं वो मैं ही तो नहीं
जिसका ना कोई दोस्त है ना ही कोई साथी
रहती है अकेली बिल्कुल उस तारे की तरह
आज भी गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा
लेकिन मुझे पता है
जहां भी है वो है मुझे जैसा ही अकेला
गुम है गर्दिश में कहीं वो तारा....
नलिन नाथ (NALIN NATH)
बहुत अच्छी कविता है....और प्रयास करो। ऑल दि बेस्ट......
ReplyDeletegood
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