काम निकालने के राडियाई नुस्खे
सेवंती नैनन
(प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी दैनिक ‘द हिंदू’ में मीडिया पर छपनेवाला सेवंती नैनन का पाक्षिक स्तंभ मीडिया मैटर्स अपनी साफगोई और गहरी पकड़ के कारण बहुचर्चित है। पर बीते 5 दिसंबर को ‘द हिंदू’ ने इस स्तंभ को बिना कारण बतलाए नहीं छापा। यह लेख नैनन के ब्लॉग द हूट से साभार हिंदी में हू-ब-हू ‘बया’ के पाठकों के सामने रखा जा रहा है।)
राडिया टेप पत्रकारिता और जन संपर्क के विद्यार्थियों के लिए पाठ्य-पुस्तक जैसा उपयोगी महत्त्व रखते हैं, आजकल इन दोनों का प्रशिक्षण एक ही संस्थान में होता है। जिस तरीके से राडिया ने काम किया वह दोनों ही किस्म के व्यवसायों में लगे लोगों के लिए अलग-अलग सबक पेश करते हैं।
आइए पहले देखते हैं कि नए पत्रकार इन टेप की बातचीतों से क्या सीख सकते हैं। आपसी प्रतिद्वंद्विता में उलझे एक जोड़ी उद्योगपति बंधु ही लोकतंत्र के हर महत्त्वपूर्ण स्तंभ को, चाहे वह सरकार हो, संसद हो, न्यायपालिका हो या फिर प्रेस, पथभ्रष्ट कर सकते हैं। ये टेप इस बात की निर्देशिका हैं कि भारत को कौन चलाता है और उन लोगों की योजनाओं में पत्रकार कहाँ फिट होते हैं। कभी-कभार स्वयंभू तरीके से ही। जैसा प्रभु चावला—जो कि पिछले कुछ दशकों से भारत के सर्वाधिक असरदार पत्रकारों में से हैं, राडिया से कहते हैं, ‘‘देखो इन दिस कंट्री दोनों साइड को फिक्स करने की कैपेसिटी (क्षमता) है।’’
फिर वह आगे राडिया को बताते हैं कि कैसे वह मुकेश अंबानी को यह समझाने की कोशिशों में लगे हैं, लेकिन वह आदमी न तो उनके संदेशों का उत्तर देता है और न ही उनके फोन उठाता है। हम नहीं जानते कि अंतत: अंबानी को यह बात समझ में आई या नहीं कि कैसे प्रभु चावला उनकी मदद कर सकते हैं। ध्यान रखें कि जो बातचीत जारी की गई है वह बेहद चुनिंदा है।
दूसरा सबक : जो लोग वास्तव में देश को चला रहे हैं उन्हें पत्रकारों की ज़रूरत है, पर अपनी ही शर्तों पर, और वे उसकी कीमत जानते हैं।
नीरा राडिया और रतन टाटा की बातचीत देखें:
टाटा : इस सब का खुलासा क्यों नहीं हुआ?
राडिया : रतन वो लोग मीडिया को खरीद ले रहे हैं। वे मीडिया को खरीदने के लिए अपनी पैसे की ताकत का इस्तेमाल कर रहे हैं। हर विज्ञापन के लिए जो वे ...को देते हैं, मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मेरी मीडिया से क्या बात हुई, खासकर ‘टाइम्स समूह’ और ‘दैनिक भास्कर’ से। वही अग्रवाल लोग जिनसे तुम मिले थे।
टाटा : हाँ...
राडिया : वे कहते हैं, नीरा, हम जब भी उनके खिलाफ कोई नकारात्मक खबर लगाते हैं, वे लोग विज्ञापन देना बंद कर देते हैं। तो मैंने कहा कि ठीक है, फिर दूसरे भी विज्ञापन बंद कर सकते हैं...वे मीडिया पर खर्च अपने एक-एक डॉलर का हिसाब इस बात को सुरक्षित करने के लिए करते हैं कि उनके खिलाफ कोई नकारात्मक प्रचार ना हो। मीडिया बेहद लालची है...।
पहले पैरा में ‘वे’ अनिल अंबानी के लिए कहा गया है जिनका नाम इस टेपित बातचीत में आया है। उनके लिए ‘वह’ की जगह ‘वे’ क्यों इस्तेमाल है? क्योंकि उसके पास अपनी नीरा राडिया है।
तीसरा सबक : अगर आप ऊँचे स्तर पर पत्रकारिता कर रहे हों तो आपका साबका दोनों ओर के पटानेवालों से पड़ता है। यदि आप जानना चाहते हों कि भारत में आखिर चल क्या रहा है तो आपको दोनों से निपटना सीखना पड़ेगा। इस पेशे के पुराने खिलाड़ी इस बात को जानते हैं। अंग्रेज़ी मीडिया में हर वह संपादक जो ज़रा भी महत्त्व रखता है चाहे सफेद हो या गुलाबी दैनिक अखबार का या इलैक्ट्रानिक मीडिया का, सबका नाम बातचीत में मौजूद है। या तो उससे बात की गई है या फिर उसका संदर्भ इस रूप में है कि नीरा उससे मिलने वाली हैं। कभी-कभार मुकेश अंबानी के किसी बड़े अधिकारी के साथ मुलाकात के संदर्भ में भी उन नामों का जिक्र हुआ है। हर संपादक इस बात को भी समझता है कि मसलों को जानने के लिए आपको उनसे मिलना ही होगा।
नीरा के साथ मुकेश अंबानी के दाएं हाथ मनोज मोदी की बातचीत के अंश देखें:
बरखा मनोज से : ‘‘आप उन्हें मेरी शुभ·ामनाएँ दें, और आप ·भी दिल्ली आएं तो $फुर्सत में, हालाँ·ि आप·े पास फुर्सत जैसी कोई चीज नहीं, फिर भी कभी आए तो ...।’’
मनोज बरखा से : ‘‘नहीं, नहीं, नहीं, आप जानती हैं मैं दिल्ली ·भी नहीं आता, ले·िन ·ल रात मैं सिर्फ इसी (?) काम के लिए आया, सिर्फ इसी काम से। ’’
बरखा मनोज से : ‘‘यह काफी मददगार रहा मनोज वास्तव में। लेकिन क्या मैं आपके साथ...’’ (फोन कट जाता है)
सिर्फ संपादक हीं नहीं, रिपोर्टरों के लिए भी यह सबक है। यदि आप टेप को ध्यान से सुनें तो आप जानेंगे कि मनाने और दबाव डालने वालों से कैसे निपटा जा सकता है। कुछ रिपोर्टर जानकारियों को इधर से उधर करते हैं। कुछ साथ लेकर चलते हैं, कुछ सिर्फ सुनते और पड़ताल करते हैं, कुछ अपने बाहुबली क्लाइंटों की मदद करना चाहते हैं या फिर कुछ ऐसे भी हैं जो राडिया को यह बताने को उत्सुक हैं कि वे मदद क्यों नहीं कर पाएँगे। कुछ इस बात की सलाह देते हैं कि उन्हीं के प्रकाश्य में कैसे रास्ता निकाला जा सकता है :
एम. के. बिल्कुल तटस्थ सलाह है। इसको ऐसे अखबार को दो जो इसको लीड फ्लायर कैरी करे। इसको सीएनबीसी को दो। तब ये लोग काफी भड़केंगे। अगर सीएनबीसी इसे दिन में दस बार लीड के रूप में लेता है, तो अफरा-तफरी मच जाएगी। अगर मैं संपादक होता तो रोहिणी की स्टोरी सीधे पहले पेज पर ही लगती आधे पन्ने पर सबसे ऊपर, एकदम लीड की तरह। क्या तुम्हें लगता है कि एमडी को चिट्ठी लिखी जा सकती है? सिर्फ यह कहते हुए कि हम आपको ईटी नाउ (‘इकोनोमिक टाइम्स’ का चैनल)के शुरू होने पर शुभकामना देना चाहते हैं, और इसके बाद तुम इस मुद्दे को इस तरह उठा सकती हो कि देखिए यह मसला राष्ट्रीय रुचि का है और हमें उम्मीद है कि आप इसे ले सकते हैं, आप जानती हैं, जैसा कि वाईएसआर रेड्डी ने लिखा है। ऐसा करके तुम लगाओ ना।
(एम.के.. यानी एम.के. वेणु जो फिलहाल ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ के संपादक हैं और तब ‘इकनॉमिक टाइम्स’ में हुआ करते थे)
जो लोग जनसंपर्क में भविष्य बनाना चाहते हैं, ये टेप उनके लिए पूरे किसी मैनुएल की तरह है जो बतलाता है कि क्या करें और क्या ना करें।
पहला बुनियादी सबक : पत्रकारों को खबर चाहिए और उनके मालिकों को विज्ञापन। दोनों का दोहन करना सीखें।
दूसरा सबक : पत्रकार खुद को यह भरोसा दिलवाना चाहते हैं कि वे राष्ट्रीय हितों के संरक्षक हैं। इसी लाइन को पकड़ें।
‘‘प्रभु चावला : देखो न, जब ये भाई उलझे हों तो पूरा देश लपेटे में आ जाता है।
राडिया : हाँ, यह शायद ठीक नहीं है, ना। देश के लिए तो यह ठीक नहीं।’’
और जगहों पर भी उसने इतने ही प्यार से यह बात कही है जैसे कि उसे वास्तव में देश की बड़ी चिंता हो।
‘‘सिर्फ इसलिए कि दोनों भाइयों में विवाद है, क्या इसकी कीमत पूरा देश चुकाएगा?’’
तीसरा सबक : जानें कि प्रेस में कौन आपका दोस्त है।
‘‘हमें उन्हें सवाल देने हैं। वीर (संघवी)के साथ हम मैनेज कर सकते हैं, हम जो सवाल पूछना चाहेंगे पूछ लेंगे।’’
और इसकी समझ भी हो कि अपने क्लाइंट को किनसे दूर रखना है:
एम.के. वेणु से, जब वह इटी नाउ में थे:
‘‘वाकई वेणु। तुम अरनब को ईटी नाउ में नहीं रखना चाहते। वह बरबाद कर देगा। मैंने राहुल, रवि धारीवाल (टाइम्स समूह के सीईओ) से यह कहा भी था। कोई भी सीईओ अरनब के शो पर नहीं जाना चाहता। वीर टाइ·कून शुरू कर रहा है। मेरे सारे क्लाइंट वीर के साथ मज़े से रहते हैं।
वेणु : क्या करन थापर के साथ तुम कंफर्ट महसूस करती हो?’’
राडिया : बिल्कुल नहीं। वह अरनब जैसा ही है।
दबाव डालना सीखें:
‘‘तो ठीक है। तुम राहुल (जोशी) को बता दो कि जब टाटा पावर, टाटा केमिकल्स और नागार्जुन फर्टिलाइजर्स कोर्ट में मुकदमा दायर करेंगे और कुछ लिखने को होगा तो वे ईटी को नहीं देंगे। अगर वे खबर का सबसे ज़रूरी हिस्सा ही नहीं छापेंगे तो। तुम एक बार राहुल से बात कर लो—बता दो कि यह खबर तुम्हें नहीं देंगे अगर वह इस नजरिए से उसे नहीं लेना चाहते तो।’’
या
‘‘यदि तुम उसे प्रभाकर सिन्हा को दो तो क्या वह पहले पेज पर लेगा। मैं चाहता हूँ कि वह प्रमुखता से छपे। मैं दे सकता हूँ, सिर्फ तब जब मुझे यह आश्वासन मिल जाएगा।’’
आपको हर किस्म के पत्रकारों से बात करनी होगी, लेकिन छोटे पत्रकारों से गलबहियाँ करने की ज़रूरत नहीं है।
राडिया अपनी टीम में किसी से कहती है :
‘‘नयनतारा वगैरा मुझे कॉल कर रहे हैं। अब हर स्टोरी के लिए उन्हें मुझे फोन करने की ज़रूरत नहीं। उन्हें तुमको कॉल करना चाहिए।’’
जब अंग्रेज़ी मीडिया से मदद न मिल रही हो, तब हिंदी मीडिया में हाथ डालें।
‘‘तुम्हारे बीएस ने पूरा उनका पर्सपेक्टिव (नजरिया) कैरी किया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ भी ...बीएस का? हमारा पर्सपेक्टिव नहीं है, मुझे सुनना पड़ता है क्लाइंट से। ‘दैनिक जागरण’ में छपी स्टोरी की हज़ार प्रतियाँ। हर सांसद के घर पर भिजवाओ। अनुवाद करवाओ। उन्होंने बहुत ही आलोचनात्मक स्टोरी की है। स्टोरी शाम तक सबके घर में पहुँच जानी चाहिए।’’
और अंत में : उदीयमान जन संपर्क पेशेवरों को राडिया के जानी दुश्मन टेप वाले ‘टोनी’ संभवत: एक सबक बेहतर सिखा सकते हैं: अपने लेन-देन की इतनी बातें फोन पर नहीं करनी चाहिए।
''बया'' अक्टूबर-दिसंबर, 2010 से साभार.....