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World Book Fair, 2013 Mein Antika Prakashan

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अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद से हाल में प्रकाशित कुछ किताबें....




सुषमा नैथानी का पहला कविता-संग्रह ''उड़ते हैं अबाबील'' जारी...

ISBN 978-83-80044-84-2
Rs. 200/- INR (HB)


उड़ते हैं अबाबील : सुषमा नैथानी


कविता में खासतौर से स्मृति अप्रत्याशित काम करती है और इस तरह कल्पना का रूप ले लेती है कि उसमें लौटना 'किसी भूगोल या समय में नहीं', बल्कि कल्पना में आगे जाना बन जाता है। हो सकता है यह एक असंभव वापसी हो और ऐसी जगहों पर जाना हो जिनसे 'शायद मिलना नहीं होगा।' लेकिन यह ऐसी संवेदना है जो अतीत के मोह से ग्रस्त नहीं होती, भावुकता में विसर्जित नहीं होती, बल्कि जीवन की सार्थकता और सामथ्र्य बन जाती है। सुषमा नैथानी के पहले ही संग्रह की ज़्यादातर कविताओं में स्मृति के ऐसे आयाम दिखाई देते हैं। यहाँ एक प्रवासी संवेदना की, अपनी अंतर्भूमि से दूर जाने, वहाँ से अतीत को देखने और उसकी ओर लौटने की भी एक उड़ान है। आपस में घुलते-मिलते-विलोप हो जाते क्षणों, परिचयों और मित्रताओं से बनी हुई एक पूरी पृथ्वी है जहाँ बचपन के स्कूल के बिंब दूर देश में अपने बच्चे के लिए स्कूल की तलाश से जुड़ जाते हैं, पहाड़ के जंगलों-खेतों और भूख की कहानी भूमंडलीकरण में 'ग्लोबल होते जाते मुनाफे' से टकराने लगती है। इन कविताओं में छूटे हुए पहाड़ के बिंब घटाटोप बादलों की तरह छाये हुए हैं, लेकिन उनके बरसने के बाद यह पृथ्वी ज़्यादा साफ और चमकीली दिखाई देती है। 'बित्ते भर जगह में जंगली बकरी सी चढ़ती-उतरती औरतों' से लेकर 'अनगिनत युद्धों के काले दस्तखत' तक फैली हुई कविता समय-काल को लाँघने की कोशिश करती है और जिसका लौटना संभव नहीं है उसे अपनी उम्मीद में लौटते हुए देखती है और इस तरह अपनी स्मृति को देखना भी बन जाती है। एक नई तरह की और परिपक्व भाषा में विन्यस्त यह संवेदना 'अपने अंतर में बसी सुगंध से अपने छत्ते की शिनाख्त करती मधुमक्खियों' जैसी सहजता और 'करीने से सजे हुए बाग के बीच बुरांश के घने दहकते जंगल जैसी कौंध' से भरी हुई है।
—मंगलेश डबराल


परिचय
सुषमा नैथानी


जन्म : 1972, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड।
बचपन से खानाबदोशी का जीवन रहा है। स्कूली शिक्षा उत्तराखंड के कई छोटे शहरों में। बाद की पढ़ाई नैनीताल, बड़ौदा और लखनऊ में। 1998 से अमरीका में, जेनेटिक्स में शोध और अध्यापन। लिखना मेरे लिए खुद से बातचीत करने की तरह है, मन की कीमियागिरी है, और इस लिहाज से बेहद निजी, अंतरंग जगह लिखना फिर अपनी निजता के इस माइक्रोस्कोपिक फ्रेम के बाहर एक बड़े स्पेस में, अपने परिवेश, अपने समय के संदर्भ को समझना, अपनी बनीबुनी समझ को खंगालना भी है और संवाद की कोशिश भी। हिन्दुस्तानी में लिखते रहना अपनी भाषा, समाज और ज़मीन में साँस लेते रह सकने का सुकूँ है, जुड़े रहने का एक पुल है।
संपर्क :  sushma.naithani@gmail.com
वेबसाइट : http://swapandarshi.blogspot.com

''स्‍त्री स्‍वाधीनता का प्रश्‍न और नागार्जुन के उपन्‍यास'' : श्रीधरम

HB 395/-
स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न समकालीन भारत का एक प्रमुख प्रश्न है, जिस पर विचार करने के क्रम में सामंती और पूँजीवादी समाज दोनों की विकृतियों पर ध्यान देना आवश्यक है। स्त्री-विमर्श के दौर में स्त्री को मात्र 'देह' तक सीमित करना पूँजीवाद का चाकर होना है, जिसने नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के ज़रिए स्त्री-देह का एक खुला व्यवसाय-जाल प्राय: सभी देशों में फैला रखा है। श्रीधरम उन सचेत युवा लेखकों में हैं, जो भूमंडलीकृत विश्व में विश्व सुंदरी प्रतियोगिता और 'सेक्स टूरिज्म' की आकर्षक-मोहिनी चालों तक को समझते हैं और हमें सावधान भी करते हैं।
उपन्यासकार नागार्जुन पर कोई भी सार्थक-सुसंगत विचार स्त्री स्वाधीनता के प्रश्न को केन्द्र में रखे बगैर संभव नहीं है। पहली बार नागार्जुन के ग्यारह हिंदी उपन्यासों और दो मैथिली उपन्यासों पर गंभीर विचार-विवेचन स्त्री-स्वाधीनता के संदर्भ में श्रीधरम ने किया है। पहला अध्याय 'पराधीनता का यथार्थ' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। लेखक ने मातृसत्तात्मक समाज से लेकर सामंती-पूँजीवादी समाज तक की ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया पर गंभीर विचार किया है। उसके ध्यान में उत्तर आधुनिक समय भी है। नागार्जुन के उपन्यासों के यथार्थ को मिथिला के इतिहास और उसकी संस्कृति  के बगैर नहीं समझा जा सकता। मिथिला का सामंती समाज, ब्राह्मïणों के वर्चस्व, दरभंगा नरेश, राजा हरिसिंह देव द्वारा 1310 ई. में आरंभ की गई पंजी-व्यवस्था, इस व्यवस्था से उत्पन्न पंजीकार या घटक का एक नया वर्ग, बिकौआ प्रथा आदि ने स्त्री-दशा को विशेष रूप से प्रभावित किया।
यह पुस्तक नागार्जुन के उपन्यासों में चित्रित स्त्रियों को समग्रता में समझने के साथ मिथिलांचल और उसकी संस्कृति के एक रुग्ण पक्ष को समझने में भी सहायक है। इसमें एक ओर नागार्जुन की औपन्यासिक कृतियों में स्त्रियों के निजी दाम्पत्य, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक जीवन को समझा गया है, तो दूसरी ओर मिथिलांचल की एक तस्वीर भी पेश की गई है।
इस पुस्तक में विवाह-संस्था को स्त्रियों के हक में नहीं माना गया है। नागार्जुन के उपन्यासों में स्त्री-स्वाधीनता के प्रश्न को समझने के लिए यह एक जरूरी पुस्तक है। परिशिष्ट में नागार्जुन पर छ: हिंदी और दो मैथिली कवियों की कविताओं से नागार्जुन का महत्त्व समझा जा सकता है। इस पुस्तक का हिंदी संसार में स्वागत होना चाहिए। यह उपन्यासकार नागार्जुन और उनके स्त्री-चिंतन को समझने के लिए एक जरूरी पुस्तक है।
—रविभूषण


परिचय : 

श्रीधरम
युवा कथाकार-समालोचक श्रीधरम का जन्म 18 नवम्बर, 1974 को चनौरा गंज, (मधुबनी, बिहार) में हुआ। मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा से हिंदी-साहित्य में एम.ए., जामिया मिल्लिया इस्लामिया से एम.फिल. और भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू. से 'नागार्जुन के साहित्य में स्त्री-स्वाधीनता का प्रश्न' विषय पर पीएच.डी.।
कई कहानियाँ और वैचारिक-आलोचनात्मक लेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित-चर्चित। हिंदी के अलावा मातृभाषा मैथिली में भी समान गति से सक्रिय। हिंदी त्रैमासिक 'बया', हिंदी मासिक 'कथादेश' और मैथिली त्रैमासिक 'अंतिकाÓ आदि पत्रिकाओं के संपादन से संबद्ध रहे।
'स्त्री : संघर्ष और सृजन' (2008), 'महाभारत' (पाठ्य-पुस्तक, 2007), 'स्त्री स्वाधीनता का प्रश्न और नागार्जुन के उपन्यास' (2011) प्रकाशित। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा विदेशी छात्रों के लिए प्रकाशित पाठ्ïय-पुस्तक 'हिन्दी का इतिहास' (2007) का सह-लेखन एवं संपादन। शम्भुनाथ द्वारा संपादित पुस्तक '1857, नवजागरण और भारतीय भाषाएँ' (2008) में संपादन सहयोग। शीघ्र प्रकाश्य 'चन्द्रेश्वर कर्ण रचनावली' (पाँच खण्ड) का संपादन। 'नवजात (क) कथा' (कहानी-संग्रह) प्रकाश्य।
हिन्दी-मैथिली दोनों भाषाओं के कई महत्त्वपूर्ण चयनित संकलनों में कहानियाँ संकलित। कुछ कहानियाँ अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनूदित-प्रकाशित।
केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, आगरा में विदेशी छात्रों एवं हिन्दीतर प्रदेश के अध्यापकों के बीच अध्यापन-प्रशिक्षण। सम्प्रति, गुरु नानक देव खालसा कॉलेज, देवनगर (दिल्ली विश्वविद्यालय) में असिस्टेंट प्रोफेसर (तदर्थ)।
ई-मेल : sdharam08@gmail.com

रामाज्ञा शशिधर और वसंत सकरगाए के नवीनतम कविता संग्रह आज जारी

''बुरे समय में नींद''
HB 200.00 PB 100.00
जब मैंने पहली बार दिल्ली के 'आकाश दर्शन' में एक युवा स्वर को उत्पीडि़त पृथ्वी के गीत—बिहार के जमीनी दलित के गीत—गाते हुए सुना तो मैं सम्मोहन से भर गया। कुछ देर के लिए ऐसा लगा जैसे भोजपुर का कोई नंगे पाँव दलित भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के शहादत दिवस पर मयूर विहार के अभिजन, सभ्य समाज को आंदोलित करने चला आया हो।
शशिधर की इन कविताओं को जब मैंने सुना तो ऐसा महसूस हुआ कि भूमिहीन गरीब का जीवन उसी की भाषा, उसी के अंदाजे बयाँ में पूरे हाड़-मांस के साथ जीवंत हो गया है। यही कारण है कि शशिधर मेरे प्रिय कवि हो गए हैं, और मैं उनका मुरीद बन गया हूँ।
—वरवर राव

रामाज्ञा शशिधर की कविताएँ संवेदना की नई बनावट केसाथ-साथ यथार्थ को देखने परखने के अपने नज़रिए के कारण भी प्रभावित करती हैं। यह नई रचना दृष्टि आम आदमी के संघर्षों में उनकी सक्रिय भागीदारी की देन है। आज की कविता और कवियों को देखते हुए इसे दुर्लभ ही माना जाएगा। इसीलिए रामाज्ञा अपने समकालीनों में सबसे अलग हैं।
    वे किसान चेतना और प्रतिरोध के कवि हैं और इस रूप में नागार्जुन की परंपरा का विकास उनमें देखा जा सकता है। वे जानते हैं कि खेत में सिर्फ अन्न ही नहीं पैदा होते हैं, बल्कि फाँसी के फंदे के धागे, कफन के कपड़े और श्रद्धांजलि के फूल के उत्स भी खेत ही है। इस तरह किसान जीवन के संघर्ष ही नहीं, त्रासदी और विडंबनाओं की गहरी समझ भी शशिधर के पास है।
    शशिधर की संवेदना किसानों और बुनकरों की त्रासदी के चित्रण तक ही सीमित नहीं है। वे वर्तमान राजनीति के पाखंड को उजागर करने के साथ-साथ आज की कविता, कला और भाषा को लेकर भी गहरे सवाल उठाते हैं। जीवन-दृष्टि की यह व्यापकता ही उन्हें एक अलग काव्य व्यक्तित्व प्रदान करती है।
—मदन कश्यप


 रामाज्ञा शशिधर
02 जनवरी, 1972 को बेगूसराय जि़ले (बिहार) के सिमरिया गाँव में निम्नवर्गीय खेतिहर परिवार में जन्म। चार बहन-भाइयों  में अग्रज। दिनकर उच्च विद्यालय सिमरिया के बाद लनामिवि, दरभंगा से एम.ए. तक की शिक्षा। एम.फिल. जामिया मिल्लिया इस्लामिया एवं पीएच-डी. जेएनयू से।
2005 से हिन्दी विभाग, बीएचयू में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।
गाँव में दिनकर पुस्तकालय के शुरुआती सांस्कृतिक विस्तार में 12 साल का वैचारिक नेतृत्व, कला संस्था 'प्रतिबिंबÓ की स्थापना एवं संचालन तथा इला$काई किसान सहकारी समिति के भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष। जनपक्षीय लेखक संगठनों के मंचों पर दो दशकों से सक्रिय। इप्टा के लिए गीत लेखन।
लगभग आधा दर्जन पत्र-पत्रिकाओं का संपादन। दिल्ली से प्रकाशित समयांतर (मासिक) में प्रथम अंक से 2006 तक संपादन सहयोगी। ज़ी न्यूज, डीडी भारती, आकाशवाणी एवं सिटी चैनल के लिए छिटपुट कार्य।
प्रकाशित पुस्तकें : 'आँसू के अंगारे, 'विशाल ब्लेड पर सोई हुयी लड़की' (काव्य संकलन), 'संस्कृति का क्रान्तिकारी पहलू' (इतिहास), 'बाढ़ और कविता' (संपादन)। पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं के अलावा आलोचना, रिपोर्ताज और वैचारिक लेखन। 'किसान आंदोलन की साहित्यिक भूमिका' शीघ्र प्रकाश्य।
फिलहाल बनारस के बुनकरों के संकट पर अध्ययन।








''निगहबानी में फूल''
HB 200.00
वसंत सकरगाए का यह पहला कविता संग्रह है। पहले कविता संग्रह की तरह इसमें संशय भी है और उत्साह भी। बहुत कुछ कह डालने का उतावलापन भी है और बहुत कुछ कहने से अपने को रोक लेने का संकोच भी। एक नए कवि के पहले कविता संग्रह को पाठक हमेशा इस उम्मीद के साथ खोलता है कि वहाँ कहन का एक ताज़ा टटकापन ज़रूर होगा। अनुभवों में ताज़गी होगी। कुछ अक्सर अलक्षित रह जाने वाले हमारे आस-पास के दृश्य होंगे। जीवन की आपाधापी में ओझल हो गयी जीवन की नई सच्चाइयां होंगी। शिल्प में एक नई सी चमक होगी और भाषा में कुछ ऐसे शब्द होंगे जो हमारी भाषा का विस्तार करते हों। कहना न होगा कि वसंत सकरगाए की इन कविताओं में हमारे जीवन के अनेक चिरपरिचित दृश्यों, घटनाओं और अनुभवों में कुछ अदेखा रह जाने वाला, अक्सर अनकहा रह जाने वाला या कहें कि देखने-सुनने और कहे जाने से छूट जाने वाला कुछ है, जिसकी तरफ ये कविताएँ इंगित करना चाहती हैं। ये कविताएँ हमारे अनुभव में कुछ जोड़ती हैं। ये देखने में कुछ अलग से देखने को प्रस्तावित करती हैं। कई बार अचंभित करती हैं कि इस तरह तो हमने सोचा ही नहीं था। नर्मदा की पट्टी के अनेक शब्द और लोकानुभव की अनुगूँजें इन कविताओं में देखी सुनी जा सकती हैं।
वसंत का अनुभव संसार फकत मध्यवर्ग तक सीमित नहीं है। उसकी कविताओं में जीवन के अनेक संस्तर प्रकट होते हैं। उसमें हमारे जीवन के अँधेरे कोने-कुचाले हैं तो उसके धुले-उजले कोने भी हैं। जीवन की विद्रूपताएँ और विडम्बनाएँ हैं तो सुंदरता और विस्मित करने वाली आकस्मिकताएँ भी हैं। इन कविताओं में विषयों की विविधता का एक बहुरंगी लैण्डस्केप है। यह एक ऐसी कविता है जो हमारी विपुल और बहुरंगी सामाजिकता के अनेक पहलुओं को छूती है, टटोलती है और उनके ढके-छिपे रहस्यों को खोलती है। इन कविताओं की राजनीतिक दृष्टि उसकी सामाजिकता में ही विन्यस्त है। कहा जा सकता है कि उसकी सामाजिकता और उसकी राजनीति को एक-दूसरे से पृथक करना संभव नहीं है। उसके अन्तस में कहीं बहुत गहरे में अपनी पुरानी संस्कारबद्ध नैतिकताओं के आग्रह मौजूद हैं लेकिन वह इन नैतिकताओं पर भी सवाल उठाती हैं, उनसे जूझती हंै और टकराती हंै। मुठभेड़ करती हैं। वह पुरानी नैतिकताओं के सहज स्वीकार की कविता नहीं है। उसमें सही को स्वीकार करने का विवेक है और अस्वीकार करने का साहस भी।
वसंत की ये कविताएँ वस्तुत: समाज की परिधि पर खड़े उस आखिरी आदमी के पक्ष में बोलने वाली कविताएँ हैं जो अपनी फटी हुई चड्डी को अपनी हथेलियों से ढाँपने की कोशिश कर रहा है। जिसके लिये भाषा नया धागा कातने को आमादा है और जिसके लिये कविता सूखी घास में सुई को ढूँढ रही है। वस्तुत: ये कविताएँ आकाश में नक्षत्र की तरह चमकने या टूटने की चाहत की कविताएँ नहीं हंै ये तो अपनी ही ज़मीन पर जुड़कर टूटने और टूट कर फिर जुडऩे की इच्छा से भरी कविताएँ हैं।
— राजेश जोशी


वसंत सकरगाए 
02 फरवरी ( वसंत पंचमी) 1960 को मध्‍यप्रदेश के निमाड जनपद की तहसील हरसूद में (जो अब जलमग्‍न हो चुका) जन्‍म।
कविता के संस्‍कार अपनी जन्‍मभूमि से और परिष्‍कार सांस्‍कृतिक राजधानी तथा कर्मभूमि भोपाल में।
साहित्‍य और पत्रकारिता में समान रूप से सक्रिय।
वसुधा, साक्षात्‍कार, आकंठ, कला, समय, रंग, संवाद, वर्तमान साहित्‍य, कथन, कथादेश, अलाव आदि विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन। आकाशवाणी तथा कई साहित्‍य-प्रसंगों में शिरकत। सांस्‍कृतिक यात्राएं और रचनात्‍मक सक्रियता के लिए पुरस्‍कृत।

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